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गीता सार- मनुष्य की अनुभूतियां उसे नियंत्रित करती हैं-4

हमें फॉलो करें गीता सार- मनुष्य की अनुभूतियां उसे नियंत्रित करती हैं-4
- अनिल विद्यालंकार

हमारा चिंतन हमारे अंदर विद्यमान अनुभूतियों से नियंत्रित होता है। हम प्रयत्न करने पर भी अपने चिंतन को रोक नहीं पाते। वास्तव में मनुष्य की सारी ही चेतन क्रियाएं उसके अंदर विद्यमान अनुभूतियों से नियंत्रित होती हैं। 


 
किसी भी क्षण मनुष्य वह करता है, जो उसके अंदर की उस क्षण की अनुभूति उसे करने के लिए कहती है। अगर उसे प्यास की अनुभूति हो रही है तो वह पानी पिएगा, अगर भूख की अनुभूति है तो वह खाने की तलाश करेगा और यदि उसमें क्रोध की अनुभूति है तो वह चिल्लाएगा या लड़ेगा। 
 
यदि उसमें संसार के बारे में जिज्ञासा की अनुभूति है तो वह विज्ञान का अध्ययन करेगा और उसका विकास करेगा और यदि उसकी जिज्ञासा की अनुभूति स्वयं अपने विषय में है तो वह दर्शन पढ़ेगा या किसी गुरु के पास जाएगा।
 
बिना अपवाद के मनुष्य की सभी चेतन क्रियाएं उसके अंदर उस समय विद्यमान अनुभूति द्वारा नियंत्रित होती हैं। यदि अनुभूति नहीं तो चेतन क्रिया नहीं। और ये अनुभूतियां मनुष्य स्वयं नहीं उत्पन्न करता। कोई व्यक्ति अपने संकल्प द्वारा न तो किसी पर गुस्सा कर सकता है और न किसी से प्यार।
 
अनुभूतियां स्वायत्तता हैं। जब उन्हें होना होगा तब वे होंगी। वे हो भी सकती हैं और नहीं भी हो सकतीं। कई मनुष्यों को धार्मिक अनुभूति नहीं हुई है और कइयों ने सच्चे प्यार का अनुभव नहीं किया। ऐसा कोई उपाय नहीं है जिससे ये अनुभूतियां अपने अंदर या किसी और के अंदर सीधे जगाई जा सकें। अनुभूतियों पर हमारा नियंत्रण नहीं है।
 
हमारे अंदर कई बार अनुभूतियों का संघर्ष होता है। हमें गुस्सा आता है और हम उसे रोकना चाहते हैं। गुस्सा एक अनुभूति है और उसे रोकने की इच्छा दूसरी अनुभूति है। सारा खेल अनुभूतियों का ही है। जब कोई युवक या युवती दुविधा में हो कि किसी लड़के या लड़की से शादी करें या नहीं? या अपना वर्तमान काम छोड़ें या नहीं? तब अनुभूतियों में ही संघर्ष होता है।
 
अपने धर्म को लेकर बहुत से मनुष्यों की अनुभूतियों में संघर्ष होता रहता है। इन सभी स्थितियों में उस समय की प्रबलतम अनुभूति तय करेगी कि मनुष्य क्या करेगा? मनुष्य के जीवन में सभी निर्णय, बिना अपवाद के, उस क्षण की प्रबलतम अनुभूति द्वारा लिए जाते हैं।
 
यदि मनुष्य का अपनी अनुभूतियों पर नियंत्रण नहीं है और उसके सभी कार्य उसके अंदर विद्यमान अनुभूतियों द्वारा किए जा रहे हैं तो अवश्य ही मनुष्य अपने कर्मों का कर्ता नहीं है। कर्तृत्व अनुभूतियों में है, न कि मनुष्य में। 
 
यदि श्री क अपनी पत्नी पर चिल्ला रहे हैं तो चिल्लाने का काम वास्तव में श्री क के अंदर विद्यमान गुस्से की अनुभूति कर रही है, न कि श्री क। यद्यपि हम सामान्य भाषा में यही कहते हैं कि श्री क अपनी पत्नी पर चिल्ला रहे हैं। 
 
यदि गुस्से की अनुभूति न हो तो भी श्री क श्री क ही रहेंगे, पर वे चिल्लाएंगे नहीं। स्पष्ट ही, चिल्लाने की क्रिया का कर्ता गुस्से की अनुभूति है और वह श्री क के मस्तिष्क और मुंह को एक साधन के रूप में इस्तेमाल कर रही है। 
 
(जारी)
 
 

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