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गायत्री तत्व विवेचन

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या सांगोपांगवेदेषु चतुर्ष्वेकैव गीयते।
अद्वैता ब्रह्मणः शक्तिः सा मां पातु सरस्वती॥
आकृतिं या निराकृत्य सच्चिदानन्दशब्दभाक्‌।
गायत्रीतोऽधिगंतव्या सा परा समुपास्यते॥
जीव का एकमात्र लक्ष्य है सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति। भूत-प्रेत, गंधर्व, यक्ष, किन्नर और इंद्रादि देवताओं की प्रवृत्ति में भी लक्ष्य यही सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति है। वस्तुतः दुःख का सर्वथा नाश होकर नित्य महान सुख की प्राप्ति किस प्रकार से होती है, यह विज्ञान जीव की कामादि दोष-दूषित बुद्धि से नहीं होता। जो कर्म सुख प्राप्ति और दुःखाभाव का साधन नहीं है, उसी में पच-पचकर जीव अपनी आयु समाप्त कर देता है। केवल वेदों से ही यह अलौकिक विज्ञान होता है।
 
यद्यपि वेदों में अनेक कर्म और उपासनाओं का वर्णन है तथापि द्विजातियों के लिए नित्य सुख की प्राप्ति और सर्वथा दुःख की निवृत्ति रूप मोक्ष का हेतु गायत्री मंत्र माना गया है। गायत्री मंत्र सब वेदों का सार है। 'तत्र गायत्रीं प्रणवादिसप्तव्याहृत्युपेतां शिरःसमेतां सर्ववेदसारमिति वदन्ति'- यह गायत्री का शांकरभाष्य है। इस गायत्री मंत्र में प्रत्येक पद तथा अक्षर अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें प्रथम अक्षर ॐकार है।
 
ॐ कार की महिमा
अवतीत 'ओम' इस व्युत्पत्ति से सर्वरक्षक परमात्मा का नाम ओम्‌ है। संपूर्ण वेद एक स्वर से ॐकार की महिमा गाते हैं। जैसे-
 
सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहणेण ब्रवीम्योमित्येतत्‌॥
 
एतद्धये वाक्षरं ब्रह्म एतद्धये वाक्षरं परम्‌।
एतद्धये वाक्षरं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते॥
 
एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्‌।
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते॥
 
कठोपनिषद् में धर्मराज नचिकेता से कहते हैं- 'हे नचिकेत! संपूर्ण वेद जिस पद को कहते हैं, संपूर्ण तप के फल का जिसकी उपासना के फल में अन्तर्भाव है, जिसकी इच्छा से ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं उस पद को मैं तुझसे संक्षेप से कहता हूं। वह ॐ यह पद है। यही सगुण ब्रह्म है और यही पर-निर्गुण ब्रह्म है। इस अक्षर को जानकर जो जिस फल की इच्छा करता है, उसको वही मिलता है। यह आलम्बन अत्यंत श्रेष्ठ है। इस आलम्बन को जानने से ब्रह्मलोक में जाकर वह महिमा को प्राप्त होता है।'
 
प्रश्नोपनिषद् में सत्य काम ने पिप्पलाद ऋषि से पूछा है कि 'हे भगवन! मनुष्यों में जो मरणपर्यन्त ॐकार का ध्यान करता है, उसको किस लोक की प्राप्ति होती है?' ऋषि ने कहा कि 'वह सगुण या निर्गुण ॐकार रूप ब्रह्म को प्राप्त होता है।'

एतद्वै सत्यकाम परं चापरं ब्रह्म यदोंकारः।
तस्माद्विद्वानेतेनैवायतनेनैकतरमन्वेति॥
 
सम्पूर्ण माण्डूक्योपनिषद् भी ॐकार के वर्णन में ही समाप्त हुआ है।
 
युज्जीत प्रणवे चेतः प्रणवो ब्रह्म निर्भयम्‌।
प्रणवे नित्ययुक्तस्य न भयं विद्यते क्वचित्‌॥
 
प्रणवं हीश्वरं विद्यात्सर्वस्य हृदि संस्थितम्‌।
सर्वव्यापिनमोंकारं मत्वा धीरो न शोचति॥
 
अमात्रोऽनन्तमात्रश्च द्वैतस्योपशमः शिवः।
ओंकारो विदितो येन स मुनिर्नेतरो जनः॥
 
गौड़ पाद कारिका में ॐकार की महिमा का विस्तार से वर्णन है।
 
छान्दोग्योपनिषद् में 'ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत्‌' ऐसा उपक्रम करके यह प्रसंग लिखा है कि किसी समय देवताओं ने मृत्यु से भयभीत होकर त्रयीविद्या विहित कर्मों का अनुष्ठान करके कर्मानुष्ठान द्वारा अपने को वेदों से आच्छादन कर लिया। इसीलिए वेदों का नाम छन्द पड़ा। 
 
जैसे धीवर जल में मछलियों को देखता है, इसी प्रकार मारक मृत्यु ने कर्मरूपी जल में देवताओं को देखा अर्थात कर्म-जल-क्षय से देवताओं को मारने का निश्चय किया। देवताओं ने भी मृत्यु के अभिप्राय को जान लिया। तब वे कर्मानुष्ठान छोड़कर ॐकार की उपासना में तत्पर हुए। 
 
ॐकार की
उपासना करके वे अमृत और अभय हो गए। जो कोई इस तरह जानकर ॐकार की उपासना करता है वह भी देवताओं की तरह अमृत और अभय हो जाता है। इसी प्रकार नृसिंहतापनी आदि अनेक उपनिषदों में ॐकार की महिमा का वर्णन है।
अन्यान्य ग्रंथों में भी ॐकार की बड़ी महिमा है। यथा श्रीमद्भगवद्गीता-
 
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्‌।
यः प्रयाति त्यजन्‌ देहं स याति परमां गतिम्‌।

श्रीमद्भागवत्‌-
अभ्यसेन्मनसा शुद्धं त्रिवृह्रह्माक्षरं परम्‌।
मनो यच्छेज्जितश्वासो ब्रह्मबीजमविस्मरन्‌॥
 
मनुस्मृति-
क्षरन्ति सर्वा वैदिक्यो जुहोतियजतिक्रियाः।
अक्षरमक्षयं ज्ञेयं ब्रह्म चैव प्रजापतिः॥
 
योगदर्शन-
तस्य वाचकः प्रणवः। तज्जपस्तदर्थभावनम्‌।
 
इस प्रकार अनेक स्मृतियों और पुराणों में ॐकार की अत्यंत महिमा गाई गई है। ॐकार के ऋषि ब्रह्मा हैं, छंद गायत्री है और सब कर्मों के आरंभ में इसका विनियोग है- अर्थात सम्पूर्ण कर्मों के आरंभ में ॐकार का प्रयोग करना चाहिए। 'तेनेयं त्रयीविद्या वर्तते'- यह छान्दोग्य-श्रुति है। 'तेन ॐकारेण।'
 
भूः आदि व्याहृतियों की महिमा
गायत्री मंत्र के प्रथम जो भूर्भुवः स्वः ये तीन व्याहृति हैं, इनकी महिमा का भी वेदों में वर्णन है। छन्दोग्य के चतुर्थाध्याय का प्रसंग है। एक समय प्रजापति लोकों में सार-वस्तु जानने की इच्छा से तप (विश्वविषयक संयम) करने लगे। तप करने से उन्होंने पृथ्वी में अग्नि-देवता को, अंतरिक्ष में वायु देवता को और स्वर्ग में आदित्य देवता को सार देखा। 
 
पुनः तप (देवताविषयक संयम) करने से अग्नि में ऋग्वेद को, वायु में यजुर्वेद को और आदित्य में सामवेद को सार देखा। फिर तप (वेदविषयक संयम) करने से ऋग्वेद में भूः को, यजुर्वेद में भुः को और सामवेद में स्वः व्याहृति को सार देखा। अतः ये महाव्याहृतियां लोक, देव और वेदों में सार तत्व वस्तु हैं। 'भूः' का अर्थ सत्‌, 'भुवः' का अर्थ चित्‌ और स्वः' का अर्र्थ आनंद है।
 
भूरिति सन्मात्रमुच्यते। भुव इति सर्व भावयति प्रकाशयतीति व्युत्पत्या चिद्रूपमुच्यते। सुव्रियते इति व्युत्पत्या स्वरिति सुष्ठु
 
सर्वैंर्वि्रयमाणसुखस्वरूपमुच्यते। इति शांकरभाष्यम्‌।
'महः' सर्वातिशय महत्तर का नाम है। 'जनः' सर्व के कारण का नाम है। 'तपः' सर्वतेजोरूप परतेज का नाम है और सत्य सर्वबाधारहित को कहते हैं।
 

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