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श्रावणी कर्म

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-पूज्य पांडुरंग शास्त्री आठवले
ज्ञाननिष्ठ ब्राह्मणों का यज्ञोपवीत बदलने का उत्सव, भक्ति प्रदान भाई-बहनों का रक्षाबंधन का उत्सव और कर्मवीर व्यापारियों का समुद्रपूजन का उत्सव; इन तीनों उत्सवों का त्रिवेणी संगम अर्थात श्रावणी पूर्णिमा।
उपनयन संस्कार : यज्ञोपवीत धारण करने के संस्कार को षोडश संस्कारों में उपनयन संस्कार नाम दिया गया है। 'उप' यानी पास और 'नयन' यानी ले जाना। जिस संस्कार से विद्यार्थी को गुरु के पास ले जाया जाता है उस संस्कार को उपनयन संस्कार कहते हैं। यज्ञोपवीत धारण करने वाले को वेदनिष्ठा अपनानी होती है और वेदनिष्ठा अपनाने वाले शिष्य को ही गुरु ज्ञान देते हैं, उसे ही दीक्षा देते हैं। 
 
दीक्षा वह है जो दिशा बताए और दृष्टि प्रदान करे। यज्ञोपवीत धारण करने के बाद गुरु के पास जाने वाले को कर्तव्य की दीक्षा और जीवन की दृष्टि प्राप्त होती है। इस अर्थ में उपनयन में उपनयन का अर्थ दूसरी आँख या नई दृष्टि ऐसा भी हो सकता है।
 
उपनयन संस्कार एक दिव्य संस्कार है। उसके द्वारा मानव को नया जन्म मिलता है। यह उसका संस्कार जन्म है। 'जन्मना जायते शूद्राः संस्कारात्‌ द्विज उच्यते'। उपनयन संस्कार अर्थात तेजस्वी जीवन की दीक्षा। यज्ञोपवीत देते समय बालक को लंगोटी पहनाते हैं। लंगोटी बाँधने का अर्थ है विषय वासना पर काबू रखना। 
 
फैली हुई सूर्य की किरणों को बहिर्गोल काँच द्वारा केंद्रित किया जाय तो उससे अग्नि पैदा होती है, उसी तरह विच्छिन्न, बिखरी हुई, स्खलित होने वाली वीर्यशक्ति को बाँधा जाए, संयमित किया जाए तो उससे भी प्रचंड शक्ति निर्माण होती है। लंगोटी का तात्पर्य है कि जीवन में भोग को प्राधान्य न देकर त्याग को प्राधान्य देना, सुख को गले न लगाकर सादगी को आलिंगन करना। सादगी होगी तभी विद्या संपादन हो सकेगी।
 
यज्ञोपवीत लेते समय कमर पर मेखला बाँधनी होती है। मेखला बंधन यानी व्रत बंधन, मेखला बंधन यानी जिंदगी में आने वाली मुसीबतों के साथ कमर कसकर संघर्ष करने की तत्परता रखना, मेखला बंधन यानी जीवन के दैवासुर संग्राम में आसुरी वृत्ति विजयी न हो उसके लिए सतत जागृति।
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बटुक के हाथ में रहने वाला दंड आत्मशासन का प्रतीक है। आत्मशासन ही श्रेष्ठ शासन है। बाह्य शासन कितना ही समर्थ क्यों न हो फिर भी मानव को बदलने में असफल रहता है। अपने द्वारा हुए अपराध का दंड स्वयं माँग लेना ही आत्मशासन का रहस्य है। अपने आपसे छिपकर मानव कोई भी अपराध या पाप नहीं कर सकता। शंख के आश्रम के वृक्ष का अनजाने ही आम तोड़ लेने के बाद स्वेच्छा से अपना वह हाथ काट डालने वाली महाभारत के ऋषि लिखित की घटना हमें विदित ही है। 
 
दंड संरक्षणार्थ भी उपयोगी है। जिस तरह दंड सरल और सीधा है उसी तरह दंड धारण करने वाले को भी सरल और सीधा रहना है। कहीं भी किसी के आगे झुकना नहीं है। झुकूँगा तो सिर्फ माता-पिता, गुरु, संत और भगवान के सामने। मानव सभी जगह झुकता रहे इतना दीन, लाचार नहीं होना चाहिए और साथ ही साथ किसी के आगे न झुके ऐसा उन्मत्त भी नहीं होना चाहिए। 
 
झुकने योग्य स्थान पर दंडवत प्रणाम करने की मानव की तैयारी होनी चाहिए। इसी अर्थ में शिवाजी ने अपनी माँ से बचपन में कहा था- 'तू यदि कहेगी तो तेरे चरणों में मस्तिष्क काटकर रख दूँगा लेकिन मुगल बादशाह के सामने मेरा सिर नहीं झुकेगा।'
 
यज्ञोपवीत लेते समय बटुक को मृगचर्म बाँधना होता है। यह कृतज्ञता का प्रतीक है। मानव को मांसाहार से वनस्पत्याहार पर लाने में ऋषियों ने वर्षों तक परिश्रम किया है। उन्होंने मानव को कृषि की कला सिखाकर अन्न निर्माण करना सिखाया, परंतु हिरनों की दौड़ से फसल को नुकसान होने लगा। 
 
अन्न नष्ट हो तो मानव फिर से मांस खाने लगेगा इसलिए मानव के उत्कर्ष को ध्यान में रखकर निर्दोष हिरनों को मारने का निश्चय हुआ और इस तरह 'मृगया' राजधर्म हो गया। परंतु मानव के विकास के लिए हिरनों का बलिदान लिया जाता है। इस बात को ध्यान में रखकर कृतज्ञ बुद्धि से ऋषियों ने मृगचर्म को पवित्र माना है। देवस्थान या पूजा में चमड़ा नहीं चलता, लेकिन मृगचर्म के लिए कोई आपत्ति नहीं है।

यज्ञोपवीत वैदिक जीवन धारणा का प्रतीक है। यज्ञोपवीत के नौ तंतु होते हैं और प्रत्येक तंतु चपर अलग-अलग नौ देवताओं की प्रस्थापना की हुई होती है।
 
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ॐकारं प्रथमतन्तौन्यसामि ।
अग्निं द्वितीयतन्तौन्यसामि ।
नागान्‌ तृतीयतन्तौन्यसामि ।
सोमं चतुर्थतन्तौन्यसामि ।
पितृन पंचमतन्तौन्यसामि ।
प्रजापतिं षष्ठमतन्तौन्यसामि ।
वायुं सप्तमतन्तौन्यसामि ।
यमं अष्टमतन्तौन्यसामि ।
विश्र्वान्‌ देवान्‌ नवमतन्तौन्यसामि ।
 
पहले तंतु पर ॐकार, दूसरे पर अग्नि, तीसरे पर नाग, चौथे तंतु पर सोम और अनुक्रम में पितृ, प्रजापति, वायु, सम और नौवें तंतु पर विश्वदेवता। इस तरह देवों का आह्वान करके उनकी प्रस्थापना की जाती है। यज्ञोपवीत हमेशा इन देवताओं की स्मृति दिलाता है। भगवान मेरे साथ हैं इस बात का सतत स्मरण मानव को अंकुश में रखता है। 
 
यज्ञोपवीत द्विज के शरीर पर हमेशा के लिए धारण किया हुआ होता है। उसके प्रत्येक कर्म में वह साक्षी रहता है, उसके कर्तव्य और संकल्पों का स्मारक है। यज्ञोपवीत हमें कहता है, 'जगत का बादशाह सतत मेरे साथ है, तू उसे देख नहीं सकता, लेकिन वह तुझे और तेरे कार्यों को सतत देखता रहता है। इतना ध्यान में रखकर चलेगा तो तेरा जीवन बदल जाएगा।' भगवान हमारे साथ हैं, इसमें एक बड़ा आश्वासन भी है। जीवन संग्राम में हम अकेले नहीं हैं, भगवान का हमें साथ है। इसलिए यज्ञोपवीत धारक मानव कभी हिम्मत नहीं हारता।
 
यज्ञोपवीत नौ तंतुओं को तीन-तीन में गूँथकर त्रिसूत्री बनाई जाती है और इन सूत्रों पर अनुक्रम में ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद की स्थापना की जाती है। उसके बाद तीनों की गांठ लगाई जाती है। उसे ब्रह्मगांठ कहते हैं। वहाँ अथर्ववेद की स्थापना की जाती है।
 
ऋग्वेदं प्रथमं दोरके न्यसामि।
यजुर्वेदं द्वितीय दोरके न्यसामि॥
सामवेदं तृतीय दोरके न्यसामि।
अथर्ववेदं ग्रंथौ न्यसामि॥
 
जिसके जीवन में देवता सतत साथ हों, वेद जिसे मार्गदर्शन देते हों, उसे अंत में निश्चित रूप से ब्रह्म के दर्शन, ब्रह्म की अनुभूति होती है। जीवन का परम लक्ष्य ही ब्रह्म है। यह त्रिसूत्री ज्ञान, भक्ति और कर्म का प्रतीक है। जिसके जीवन में ये तीन बातें गुंथ जाती हैं उसे ब्रह्म की अनुभूति होगी ही।
 
श्रावणी पूर्णिमा को यज्ञोपवीत बदलना होता है। कई लोग श्रावण की शुक्ल पंचमी को भी यज्ञोपवीत बदलते हैं। यज्ञोपवीत बदलते समय विश्वनियंता यम भगवान की प्रार्थना करनी होती है कि 'भगवान, मैं वैदिक विचार के अनुसार जीऊँगा और तदनुसार भगवान का कार्य करूँगा। अभी तो बहुत से सत्कृत्य करने बाकी हैं। आपकी दी हुई आयु कम पड़ती है, और एक वर्ष की ज्यादा आयु दो।'

जीवन के प्रारंभ काल में जिन्हें संस्कार और सुविचार का खाद मिला है और वेदनिष्ठा को जिन्होंने जीवन में स्वीकार किया है ऐसे द्विज आज अपनी वेदरक्षण की प्रतिज्ञा का पुनर्घोष करते हैं। 
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आज के दिन जिस ऋषि-मुनियों ने संस्कृति के वृक्ष का बीजारोपण किया, जिन संतों ने उसका पोषण करके सांस्कृतिक अस्मिता को प्राणवान रखा और जिन महापुरुषों ने इन वृक्षों के पुष्पों की सुवास और फलों की मीठास को घर-घर पहुँचाने के लिए प्रयत्न किया, उन सभी परोपकारी, पुण्यशील आत्माओं का स्मरण करना चाहिए, तर्पण करना चाहिए। 
 
जिस भूमि में वे पैदा हुए, नाचे और जिसमें उन्होंने पवित्र कर्म किए उस भूमि की मिट्टी को कृतज्ञता बुद्धि से मस्तिष्क पर चढ़ाना चाहिए। 'मृत्ति के हन्मे पापं' अर्थात हे मिट्टी, तू मेरे पाप धो डाल, मेरे दुष्कृत्यों को धो डाल।
 
संतों के ऋण का स्मरण करने वाला यह उत्सव कितना तेजस्वी और दिव्य है। उनका स्मरण करते समय उनके द्वारा दी हुई संस्कृति की मशाल को सतत प्रज्वलित रखने की आज प्रतिज्ञा करनी चाहिए। उनके कंधों पर हम खड़े हैं। उनके पवित्र कर्म और तेजस्वी विचारों के आधार पर तो हम आज टिक रहे हैं। उनका हमारे पर ऋण है। उनके ही विचारों को और संस्कृति को टिकाएँ, उसका विस्तार हम करें तभी उनका ऋण हमने अदा किया माना जाएगा।
 
प्राचीनकाल में यज्ञोपवीत बदलने के लिए द्विज तपोवन में जाते थे। इसलिए तपोवन के साथ उनका आत्मीय संबंध रहता था और तपोवन की प्रगति, व्यवस्था इत्यादि की उनको जानकारी रहती थी।
 
संक्षेप में, यज्ञोपवीत लेना यानी जीवन का परम लक्ष्य निश्चित करना। यज्ञोपवीत लेना यानी जीवन में नियंत्रण मान्य करना; देवों से प्रेरणा और हिम्मत लेकर तेजस्वी जीवन जीना। यज्ञोपवीत अर्थात तेज की उपासना, यज्ञोपवीत यानी वैदिक जीवन की दीक्षा, यज्ञोपवीत यानी ऋषिऋण की कल्पना, स्वकर्तव्य ज्ञान और हरि की उपस्थिति की अनुभूति!
 
आज का युवक बिना ध्येय का अर्थात बिना पते के पत्र जैसा है। इस युवक को 'यज्ञपवीत लेना अर्थात जीवन ध्येय निश्चित करना, प्रभुश्रद्धा दृढ़ करना; सांस्कृतिक अस्मिता प्रज्वलित खना' यह सब समझने की जरूरत है। जिस द्विज ने यह समझ प्राप्त की है वह ऐसे युवकों को इसका महत्व समझाएगा तभी इस क्रिया के पीछे जो मंत्र है वह पुनर्जीवित होगा और तभी इस उत्सव की सार्थकता सिद्ध होगी।

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