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ऐसे दिखते थे जीसस क्राइस्ट, फोरेंसिक एक्सपर्ट का दावा

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लंदन। ईसा मसीह के बारे में एक और नया खुलासा हुआ है। अब यह दवा किया जा रहा है कि बाइबिल में ईसा मसीह के हुलिए का जैसा जिक्र किया गया है, दरअसल वे ऐसे नहीं थे।
यह दावा किया है ब्रिटेन के एक फोरेंसिक एक्सपर्ट ने, जिसका नाम है रिचर्ड नीव। एक्सपर्ट की रिसर्च टीम ने हिस्टोरिकल फैक्ट्स के आधार पर जीसस का नया फेस क्रिएट किया है।
 
बाइबिल के अनुसार जीसस के लंबे, पतले और भूरे बाल हैं, जो एक यूरोपियन की तरह दिखते हैं जबकि जीसस यूरोपियन नहीं थे।
 
अगले पन्ने पर जानिए किस तरह किया शोध...
 

मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी के मेडिकल आर्टिस्ट रिचर्ड नीव ने फोरेसिंक और ऑर्कियोलॉजिकल सबूतों के आधार पर जीसस का नया चेहरा बनाया है जिसमें उन्होंने जीसस को एक मिडल ईस्ट के ट्रेडिशनल यहूदी की तरह दिखाया है। उनका फेस उत्तरी इसराइल के गेलिली शहर के लोगों से मिलता है।  
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उल्लेखनीय है कि जीसस का जन्म इसराइल के बेथलहम नामक एक गांव में हुआ था और वे खुद भी यहूदी ही थे।
 
एक्सपर्ट की रिसर्च टीम ने कई प्रसिद्ध लोगों जैसे मैसेडोनिया के फिलीप सेकंड, फादर ऑफ एलेक्जेंडर द ग्रेट और फ्रिजिया के किंग मिडास के चेहरे को जोड़कर नया चेहरा बनाया है।
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उन्होंने एक इसराइली आर्कियालॉजिस्ट से यहूदी स्कल (खोपड़ी) लिया और स्कल की एक्स-रे स्लाइस क्रिएट की। फिर कम्प्यूटर की मदद से उसमें मसल्स, स्किन जोड़े गए। टीम ने उसमें दाढ़ी बढ़ाई और सिर के बाल छोटे रखे। ये घुंघराले बाल थे। दरअसल, ट्रेडिशनल यहूदी हुलिया इसी प्रकार का होता है।
 
टीम का मानना है कि जीसस की लंबाई 5 फीट के ऊपर रही होगी। जीसस के इस नए फेस के अनुसार उनका चेहरा बड़ा, काली आंखें, छोटे घुंघराले काले बाल और एक जंगली दाढ़ी के साथ चेहरे का रंग गहरा गेहूंआ।
 
आमतौर पर इस तकनीक का इस्तेमाल अपराधियों को पकड़ने के लिए तथ्‍यों और कथनों के आधार पर अपराधी का हुलिया बनाने के लिए किया जाता। एक्सपर्ट का यह निष्कर्ष 2002 के पहले का है, जो पहले एक लोकप्रिय पत्रिका में छप चुका है। हाल ही में शुक्रवार को इस लेख को एस्क्वायर में फिर से प्रकाशित किया गया है जिसके चलते यह चर्चा में आया।
 
हालांकि एक्सपर्ट यह दावा नहीं करते हैं कि यहीं ईसा मसीह का चेहरा होगा लेकिन यह उनके चेहरे से सबसे करीबी चेहरा जरूर हो सकता है।
 
अगले पन्ने पर जानिए ईसा मसीह के बारे में एक रहस्य...
 

जीसस का जन्म इसराइल के बेथलहम में हुआ था। यहूदी बहुल इसराइल में उस काल में रोमनों की सत्ता थी। जीसस खुद एक यहूदी थे। उन्होंने इसराइल, फिलीस्तीन और जॉर्डन से होकर गुजरने वाली एक नदी के किनारे बपतिस्मा लिया था। यरुशलम में एक चर्च है जिसे 'चर्च ऑफ द होली स्कल्प्चर' कहा जाता है।
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ईसा मसीह के जीवन को सबसे विवादित और विरोधाभासिक माना जाता है। बहुत से लोग दावा करते हैं कि वे क्रॉस पर चढ़े जरूर थे लेकिन उनकी मौत नहीं हुई थी। ईसा मसीह ने 13 से 29 साल तक क्या किया, यह रहस्य की बात है। बाइबिल में उनके इन वर्षों के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं मिलता है। अपनी इस उम्र के बीच ईसा मसीह भारत में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। 
 
30 वर्ष की उम्र में यरुशलम लौटकर उन्होंने यूहन्ना (जॉन) से दीक्षा ली। दीक्षा के बाद वे लोगों को शिक्षा देने लगे। ज्यादातर विद्वानों के अनुसार सन् 29 ई. को प्रभु ईसा गधे पर चढ़कर यरुशलम पहुंचे, वहीं उनको दंडित करने का षड्यंत्र रचा गया। अंतत: उन्हें विरोधियों ने पकड़कर क्रूस पर लटका दिया। उस वक्त उनकी उम्र थी लगभग 33 वर्ष।
 
रविवार को यीशु ने यरुशलम में प्रवेश किया था। इस दिन को 'पाम संडे' कहते हैं। शुक्रवार को उन्हें सूली दी गई थी इसलिए इसे 'गुड फ्राइडे' कहते हैं और रविवार के दिन सिर्फ एक स्त्री (मेरी मेग्दलेन) ने उन्हें उनकी कब्र के पास जीवित देखा। जीवित देखे जाने की इस घटना को 'ईस्टर' के रूप में मनाया जाता है। उसके बाद यीशु कभी भी यहूदी राज्य में नजर नहीं आए।
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कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि उसके बाद ईसा मसीह पुन: भारत लौट आए थे। इस दौरान भी उन्होंने भारत भ्रमण कर कश्मीर के बौद्ध और नाथ संप्रदाय के मठों में गहन तपस्या की। जिस बौद्ध मठ में उन्होंने 13 से 29 वर्ष की उम्र में शिक्षा ग्रहण की थी उसी मठ में पुन: लौटकर अपना संपूर्ण जीवन वहीं बिताया।
 
कश्मीर में उनकी समाधि को लेकर हाल ही में बीबीसी पर एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई है। रिपोर्ट के अनुसार श्रीनगर के पुराने शहर की एक इमारत को 'रौजाबल' के नाम से जाना जाता है। यह रौजा एक गली के नुक्कड़ पर है और पत्थर की बनी एक साधारण इमारत है जिसमें एक मकबरा है, जहां ईसा मसीह का शव रखा हुआ है। श्रीनगर के खानयार इलाके में एक तंग गली में स्थिति है रौजाबल।
 
आधिकारिक तौर पर यह मजार एक मध्यकालीन मुस्लिम उपदेशक यूजा आसफ का मकबरा है, लेकिन बड़ी संख्या में लोग यह मानते हैं कि यह नजारेथ के यीशु यानी ईसा मसीह का मकबरा या मजार है। लोगों का यह भी मानना है कि सन् 80 ई. में हुए प्रसिद्ध बौद्ध सम्मेलन में ईसा मसीह ने भाग लिया था। श्रीनगर के उत्तर में पहाड़ों पर एक बौद्ध विहार का खंडहर है, जहां यह सम्मेलन हुआ था।
 
ईसा के भारत में रहने का प्रथम वर्णन 1894 में रूसी निकोलस लातोविच ने किया है। वे 40 वर्षों तक भारत और तिब्बत में भटकते रहे। इस दौरान उन्होंने पाली भाषा सीखी और अपने शोध के आधार पर एक किताब लिखी जिसका नाम है, 'दी अननोन लाइफ ऑ जीसस क्राइस्ट' जिसमें उन्होंने ये प्रमाणित किया कि हजरत ईसा ने अपने गुमनाम दिन लद्दाख और कश्मीर में बिताए थे।
 
इतना ही नहीं, अपने शोध में उन्होंने यह भी लिखा कि उन्होंने उड़ीसा के जगन्नाथपुरी में जाकर भारतीय भाषाएं सीखीं और मनुस्मृति, वेद और उपनिषदों का अपनी भाषा में अनुवाद किया। लातोविच ने तिब्बत के मठों में ईसा से जुड़ीं ताड़ पत्रों पर अंकित दुर्लभ पांडुलिपियों का दुभाषिए की मदद से अनुवाद किया जिसमें लिखा था, ‘सुदूर देश इसराइल में ईसा मसीह नाम के दिव्य बच्चे का जन्म हुआ।'
 
13-14 वर्ष की आयु में वे व्यापारियों के साथ हिन्दुस्तान आ गए तथा सिन्ध प्रांत में रुककर बुद्ध की शिक्षाओं का अध्ययन किया। फिर वे पंजाब की यात्रा पर निकल गए और वहां के जैन संतों के साथ समय व्यतीत किया। इसके बाद जगन्नाथपुरी पहुंचे, जहां के पुरोहितों ने उनका भव्य स्वागत किया। वे वहां 6 वर्ष रहे। वहां से निकलकर वे राजगीर, बनारस समेत कई और तीर्थों का भ्रमण करते हुए नेपाल के हिमालय की तराई में चले गए और वहां जाकर बौद्ध ग्रंथों तथा तंत्रशास्त्र का अध्ययन किया फिर पर्शिया आदि कई मुल्कों की यात्रा करते हुए अपने वतन लौट गए।
 
इतिहासकार सादिक ने अपनी ऐतिहासिक कृति 'इकमाल-उद्-दीन' में उल्लेख किया है कि जीसस भारत में कई बार आए थे। अपनी पहली यात्रा में इन्होंने तांत्रिक साधना एवं योग का अभ्यास किया। इससे पहले अहमदिया संप्रदाय के धर्मगुरु ने भी इस बात का उल्लेख किया था।

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