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डोनाल्ड ट्रंप की जीत का यूरोप में असर होगा?

हमें फॉलो करें डोनाल्ड ट्रंप की जीत का यूरोप में असर होगा?
, मंगलवार, 15 नवंबर 2016 (15:28 IST)
न्यूयॉर्क। जब से अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों में रिपब्लिकन डोनाल्ड ट्रंप जीते हैं, अमेरिका के तथाकथित उदारवादी मुस्लिमों, मुख्‍यधारा की मीडिया में ट्रंप की जीत को इस तरह से प्रचारित किया जा रहा है मानो मुस्लिम जगत का 'अरब स्प्रिंग' अब वाशिंगटन, न्यूयॉर्क में पैदा हो रहा हो। चुनाब प्रचार के दौरान ही इस बात के विश्वसनीय प्रमाण मिले थे कि ट्रंप की रैलियों का हिंसक विरोध करने वाले लोग कौन से थे? वास्तव में, अमेरिका ने खुद को हाल ही में 'पॉलिटिकल करेक्टनेस' से छुटकारा पाया है लेकिन मीडिया में ट्रंपिज्म की संज्ञा दी जा रही है। नीदरलैंड्‍स में फ्री स्पीच के लिए मुकदमे का सामना कर रहे पार्टी ऑफ फ्रीड्म (पीवीवी) के प्रमुख सांसद जीर्ट विल्डर्स का कहना है कि 'अमेरिका में पॉलिटिकल करेक्टनेस से छुटकारे का असर यूरोप में भी महसूस किया जा रहा है। यूरोपीय देशों के लोग भी अछूते नहीं रहेंगे।  
वर्ष 2016 में दो राजनीतिक क्रांतियां हुई हैं। पहली है कि ब्रिटेन यूरोपीय संघ से अलग हुआ और दूसरी इससे बड़ी बात यह है कि अमेरिका में मुख्यधारा के मीडिया, पेशेवर प्रदर्शनकारियों और कथित उदारवादी वामपंथियों की सच्ची प्रगतिवादी सोच के बावजूद स्कॉटिश राजनीतिज्ञ नाइजेल फराज का मानना है कि अमेरिकियों ने एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश बने रहने का संदेश दिया है। दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में राजनीतिक वर्ग का मजाक उड़ाया जाता है, अमेरिका में चुनाव उद्योग पूरी तरह से दीवालिया हो गया है और प्रेस को अभी भी समय में नजर आ रहा है कि सारी दुनिया में क्या चल रहा है। फराज का कहना है कि एक लोकतंत्र में जब लोग खुद को नकारे जाते और घृणास्पद समझे जाने का अहसास करते हैं तो समाज के मध्यम वर्ग में एक आक्रोश पैदा होता है जो कि सत्तारूढ़ वर्ग को झकझोर कर रख देता है क्योंकि सत्तारूढ़ वर्ग उन पर अपनी वे इच्छाएं थोपना शुरू कर देता है जो कि वह सही, उचित समझता है। 
 
लेकिन लोग इस 'शॉक थेरेपी' से सत्तारूढ़ वर्ग को सबक सिखा देते हैं। इस अवसर पर मुख्यधारा का मीडिया भी उसी तरह से चूहे की तरह से बिल में दुबक जाता है जैसा कि जॉर्ज डब्ल्यू. बुश के कार्यकाल में हुआ था। समूचे मीडिया को पता था कि 'सद्दाम के व्यापक विनाश के हथियारों' को लेकर बुश झूठ बोल रहे हैं तो अमेरिकी मीडिया ने भी झूठ को सच बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। कभी-कभी सच्चाई का पता लगाने के लिए आपको ऐसे लोगों की गवाही पर भरोसा करना पड़ता है जो कि अपनी उजली छवि के लिए जाने जाते हैं। इस मामले में राष्ट्रपति निक्सन की तिकड़में लाजवाब थीं और उन्हें क्रियान्वित करने वाले शोधकर्ता, पत्रकार रोजर स्टोन ऐसे लोगों के सहायक बने जिनको लेकर लोगों में राय अच्छी नहीं थी लेकिन तब समूचे देश को स्टोन की बात पर गौर करना था जब उन्होंने असलियत बतानी चाही थी।
 
उनका कहना था कि अधिनायकवादी वामपंथी, प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ पूरी ताकत झोंक रहा था। सारे देश में ट्रंप की रैलियों में उपद्रव कराने के लिए दंगा-फसाद करने वालों को पैसे चुकाए जा रहे थे। वास्तव में यह ट्रंप विरोधी दंगे न तो स्वाभाविक थे और न ही अचानक वरन इन्हें पूरी रणनीति के अनुसार आगे बढ़ाया जा रहा था। वामपंथियों ने ऐसे भाड़े के टट्‍टुओं का उपयोग किया था। 'द वाशिंगटन एक्जामिनर' ने अपनी रिपोर्टों में कहा था कि मार्च में फॉक्स न्यूज ने क्रेगलिस्ट में एक विज्ञापन प्रकाशित कराया था जिसे बर्नी सैंडर्स समर्थक बताया गया था और इन लोगों को विस्कांसिन में ट्रंप की रैली में गड़बड़ी फैलाने के लिए 'प्रत्येक कथित समर्थक' को प्रति घंटा 15 डॉलर की दर से भुगतान किया गया था। इतना ही नहीं, इन उपद्रवियों को बस की सुविधा, पार्किंग और रेडीमेड साइन बोर्ड्‍स जैसी सुविधाएं भी मुहैय्या कराई गई थी।  
 
तब ट्रंप की रैली का विध्वंस करने के लिए ऐसे स्वयंभू नेताओं, महिलाओं और पुरुषों की मदद ली गई थी जो कि किसी भी निजी नियोक्ता से प्रतिदिन 15 डॉलर का वेतन पाने के लिए भी नौकरी के लायक नहीं समझे गए थे। इन लोगों को समझाया गया था कि उन्हें पुलिसकर्मियों पर हमले करना है, ट्रंप समर्थकों को पीटना है। जब आपके पास किसी काम के लिए कोई रोजगार नहीं है तो दंगा-फसाद करने के प्रतिघंटा 15 डॉलर की दर से भुगतान क्या कम है? ओबामा की जिस 'पॉलिटिकल करेक्टनेस' से छुटकारा पाकर ट्रंप ने अमेरिका को नींद से जगाया, वैसा ही अब समूचे यूरोप में भी हो सकता है। विदित हो कि आगामी 12 महीनों में यूरोप के कई देशों में चुनाव होने हैं और ट्रंपि‍ज्म का असर इन देशों की राजनीति पर भी पड़ सकता है। 
 
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि एक दर्जन से ज्यादा देशों में होने वाले चुनावों की शुरुआत चार दिसंबर से ऑस्ट्रिया में होनी है। इन चुनावों में अप्रवास विरोधी ऑस्ट्रियाई फ्रीडम पार्टी के नेता नोर्बर्ट डोफर की जीत की संभावनाएं बेहतर हैं। इसी दिन इटली में संविधान में संशोधन को लेकर इतालवी जनमत संग्रह के लिए वोट डालेंगे। इस जोर आजमाइश में इतालवी प्रधानमंत्री मैतियो रेंजी का फिर से चुना जाना और भी मुश्किल हो गया है क्योंकि उन्होंने हिलेरी क्लिंटन का सार्वजनिक तौर पर समर्थन किया था और इस कारण से इटली-अमेरिका के संबंध खराब होने की भी आशंका है। जबकि रेंजी ने कह रखा है कि अगर वे जनमत संग्रह में हारते हैं तो वे अपने पद से इस्तीफा दे देंगे। इस जनमत संग्रह से इतालवी सीनेट के अधिकारों में कटौती के प्रावधान हैं।
 
वर्ष 2017 में चेक गणराज्य, फ्रांस, जर्मनी, नीदरलैंड्‍स और अन्य यूरोप संघ के देशों में चुनाव होने हैं। इन सभी देशों में सरकार विरोधी नेता पहले से स्थापित सरकारों को चुनौती दे रहे हैं। इन देशों में मुख्यधारा के नेताओं ने जनवादी नेताओं को यह कहकर बदनाम किया है कि ये लोग नव-नाजीवादी, विदेशियों से भयभीत, द्वेष रखने वाले हैं और ये बड़े पैमाने पर अप्रवास, बहुसंस्कृतिवाद और इस्लाम के कट्‍टर विरोधी हैं। अगर डोनाल्ड ट्रंप यह दिखा सकते हैं कि वे अमेरिका में अपने शासन से ठोस परिणाम दे सकते हैं, अर्थव्यवस्था में सुधार ला सकते हैं और अवैध अप्रवास पर रोक लगा सकते हैं तो ये नेता ऐसा क्यों नहीं कर सकते हैं?
 
यूरोपीय देशों में सरकार विरोधी दलों ने जहां ट्रंप से सीख लेने की बात कही है, वहीं चेक गणराज्य के राष्ट्रपति मिलोस जेमान का कहना है कि ट्रंप की जीत ने 'मीडिया को अपने हितों के लिए इस्तेमाल करने वाले दलों' की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए हैं। यूके इंडिपेंडेंस पार्टी के नेता नाइजेल फराज का कहना है कि ट्रंप की जीत ने उन्हें नहीं चौंकाया है, वह मानते हैं कि बल्कि यह राष्ट्रवादी नेताओं को प्रेरित करेगी। यूरोपीय संघ की परिषद के अध्यक्ष डोनाल्ड टस्क का कहना है कि 'अमेरिका और यूरोप को मिलकर काम करने की जरूरत है।' फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वां ओलां,  हिलेरी क्लिंटन के प्रबल समर्थक रहे हैं। फ्रांस के पूर्व प्रधानमंत्रियों, डॉमीनिक डि विलेपेन और ज्यां पियरे रफारिन का कहना है कि जो अमेरिका में हो रहा है, वह फ्रांस में भी हो सकता है।  
 
फ्रांस की नेशनल फ्रंट की नेत्री मैरीन ली पेन के ट्रंप को बधाई दी, वहीं ली पेन के पिता और पार्टी के संस्थापक ज्यां-मैरी ली पेन का कहना है कि 'आज अमेरिका, कल फ्रांस'। जर्मन चांसलर अंगेला मर्केल ने ट्रंप का नाम लिए बिना उन्हें 'लोकतंत्र के मूल्यों की शिक्षा' दी है। जर्मनी के कई नेताओं ने जहां ट्रंप को कुनैन की गोली बताई है लेकिन उनके लोकतांत्रिक मूल्यों पर चलने की आशा जाहिर की है। इटली की सरकार विरोधी पाटी फाइव स्टार मूवमेंट बेप ग्रिलो ने ट्रंप की जीत को सराहा है और कहा 'अमेरिकी मतदाता अब ऐसे नेताओं का प्रतिनिधित्व नहीं चाहते हैं जो कि लोगों की चिंताओं पर गंभीरता से ध्यान नहीं देते हैं। उन्होंने समझा कि ट्रंप उनकी बात सुनते और समझते हैं।' 


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