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अमेरिकी चुनाव : दुविधा के दोराहे पर चुनावी लोकतंत्र

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सुशोभित सक्तावत

अमेरिकी राष्ट्रपति निर्वाचन में चुनावी लोकतंत्र उसी मोड़ पर आकर खड़ा हो गया लगता है, जहां पर वह एक वैश्व‍िक परिघटना की तरह इधर के सालों से आकर लगातार ठिठक जाता रहा था, अपनी प्रासंगिकता को प्रश्नांकित करते हुए। जैसे-जैसे मतदान की तारीख़ नज़दीक़ आती गई, अमेरिकियों का दिल उचाट होता रहा। उनका बस चलता तो वे इस चुनाव को निरस्त करवा देते, उसमें शिरक़त करने से इनकार कर देते। दो-दलीय प्रणाली में पार्टी की अंदरूनी तर्कणा द्वारा तय किए गए उम्मीदवारों में से किसी एक का चयन कितना विडंबनापूर्ण हो सकता है, इसका कुछ-कुछ अंदाज़ा भारतीयों को 2014 में हो चुका था। उन चुनावों में नरेंद्र मोदी ने भारी बहुमत पाया, इसके बावजूद 31 प्रतिशत जनादेश के बरअक़्स 69 प्र‍तिशत प्रतिरोध की बात कहने वाले कम नहीं थे।
 
मोदी ने यह बहुमत नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी की भीषण विकल्पहीनता वाली डायनेमिक्स में पाया था। अगर अमेरिकी चुनावों में हिलेरी क्लिंटन जैसी अलोकप्रिय उम्मीदवार भी आसानी से राष्ट्रपति बन जाती है तो इसे भी हिलेरी बनाम ट्रम्प की डायनेमिक्स की उपज ही समझा जाना चाहिए। यह विश्वास करना कठिन है कि अमेरिका जैसे देश में सरकार चलाने के लिए इन दोनों से योग्य कोई और व्यक्त‍ि नहीं था। लेकिन अगर दो प्रमुख पार्टियों द्वारा किन्हीं भी कारणों से चुने गए नेताओं में से किसी एक को ही चुनने की भारी विवशता मतदाताओं के सम्मुख हो तो क्या इसे सही मायनों में जनतंत्र कहा भी जा सकता है। अभी जनतंत्र की परिभाषा यह नहीं रह गई है कि लोग अपने नेताओं का चयन करें, बल्कि यह बन गई है कि लोग शीर्ष पार्टियों द्वारा चुने गए उम्मीदवारों में से अपने नेताओं को चुनें और अगर वे उम्मीदवार मोदी-बनाम-राहुल और हिलेरी-बनाम-ट्रम्प हैं तो चयन की इस स्वतंत्रता का कितना मूल्य रह जाता है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है।
 
बहरहाल, एक लंबे समय से वैश्वि‍क विमर्श का हिस्सा बने रहे अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के परिणाम अब चंद ही घंटों में सामने आने वाले हैं। हर लिहाज़ से ये अत्यंत महत्वपूर्ण परिणाम होंगे : दुनिया आने वाले सालों में किस दिशा में जाएगी, यह तय करने वाले। अमेरिका के हाथ में यूं ही दुनिया की आर्थ‍िक, सामरिक, भू-राजनीतिक नब्ज़ रहा करती है, और इन दिनों तो हालात और संगीन हैं। दुनिया अब उस तरह से एकध्रुवीय रह नहीं गई है, जैसी कि वह दस-पंद्रह साल पहले हुआ करती थी। दूसरी ताकतों के उभार के साथ ही वैश्व‍िक महत्वाकांक्षाओं और टकरावों में भी इजाफ़ा हुआ है। अनेक स्तरों पर संघर्ष और सहकार जारी हैं।
 
भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से गुज़रकर उभरे अनेक देश वैश्व‍िक महाशक्त‍ि के रूप में अपनी-अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं और क्षेत्रीय संगठनों का क़द बढ़ता जा रहा है। इस बदलती हुई दुनिया, फ़रीद ज़कारिया के शब्दों में कहें तो "पोस्ट-अमेरिकन वर्ल्ड" की नब्ज़ पर हाथ रखने वाला अमेरिका का नेता हिलेरी क्लिंटन होंगी या डोनाल्ड ट्रम्प, इस पर आने वाले सालों में बहुत कुछ निर्भर करने वाला है। आखिर अमेरिका की विदेश नीति, व्यापार नीति, मित्रताएं-शत्रुताएं कोई अलग-थलग चीज़ नहीं होती, पूरी दुनिया के समीकरणों पर उसका सीधा और तीखा असर पड़ता है।
 
एक तरफ़ जहां ट्रम्प रूस से रिश्ते सुधारने की बात करते हुए अमेरिकी विदेश नीति में एक नई दिशा का सूत्रपात करने की बात कर रहे थे, उसी के साथ ख़बर आई कि स्लोवेनिया के चर्चित मार्क्‍सवादी दार्शनिक स्‍लावोई ज़ीज़ेक ने चुनावों में ट्रम्‍प की उम्‍मीदवारी को अपना समर्थन दिया है। वास्‍तव में इसमें चौंकाने वाला कुछ भी नहीं है। ज़ीज़ेक ने जिन मानदंडों पर ट्रम्‍प का समर्थन किया है, वे "क्‍लासिकल कम्‍युनिस्‍ट कैनन्‍स" हैं। दूसरे शब्‍दों में, आज कोई भी सच्‍चा मार्क्‍सवादी हिलेरी क्लिंटन के बजाय डोनाल्ड ट्रम्‍प का ही समर्थन करेगा। क्‍यों? जवाब बहुत सरल है। हिलेरी क्‍लिंटन एक ख़तरनाक "स्‍टेटस-को" (यथास्‍थिति) का प्रतिनिधित्‍व करती हैं। वे एक जड़ हो चुके "पोलिटिकल-इकोनॉमिक नेक्‍सस" का हिस्‍सा हैं। वे एक सड़ी हुई "पोलिटिकल डायनेस्‍टी" का भी चेहरा हैं, जिसमें पतिदेव ने पहले आठ साल राज किया, फिर 2012 में बराक ओबामा को चुनाव जिताने में जी-जान लगा दी, और बदले में बीवी की उम्‍मीदवारी के लिए सपोर्ट मांग लिया। "क्रोनी कैपिटलिज्‍़म" की दर्ज पर यह "क्रोनी पोलिटिक्‍स" है।
 
डोनाल्ड ट्रम्‍प एक "आउटसाइडर" (भारत के संदर्भ में ये शब्‍द जाने-पहचाने लग रहे हैं ना : "डायनेस्‍टी" बनाम "आउटसाइडर") की तरह इस पूरे सिस्‍टम में भगदड़ की स्थ‍िति निर्मित करते हैं। मार्क्‍सवाद का बुनियादी पूर्वग्रह ही यथास्‍थ‍िति से विचलन है। कोई भी "स्‍टेटस कोइस्‍ट" सही मायनों में मार्क्‍सवादी हो भी नहीं हो सकता। जब बर्नी सेंडर्स ने हिलेरी क्‍लिंटन की डेमोक्रेटिक दावेदारी का समर्थन किया था तो ट्रम्‍प ने एक बहुत ईमानदार टिप्‍पणी की थी।
 
उन्होंने कहा था कि यह उसी तरह से है, जैसे "ऑक्‍यूपाई वॉलस्‍ट्रीट मूवमेंट" वाले "लेहमैन ब्रदर्स" का समर्थन करें। यह एक भीषण विरोधाभास था कि सेंडर्स जैसे सोशलिस्‍ट रुझान रखने वाले नेता हिलेरी जैसी "अपॉर्च्‍यूनिस्‍ट", "स्‍टेटस कोइस्‍ट", "कंसेंसस बिल्डर" का समर्थन करते। हममें से बहुतों को अंदाज़ा नहीं होगा कि "कंसेंसस" नामक अवधारणा को "क्‍लासिकल कम्‍युनिज्‍़म" में कितना बुरा समझा जाता है। "मैन्‍युफ़ेक्‍चरिंग ऑफ़ कंसेंट" करके नोम चॉम्‍स्‍की का ही सुविख्‍यात "डेरोगेटरी रिमार्क" है। आश्‍चर्य है कि चोम्‍स्‍की आज क्‍ल‍िंटन का सपोर्ट कर रहे हैं। कम से कम ज़ीज़ेक उनकी तुलना में अपनी विचारधारा को लेकर अधिक "कंसिस्‍टेंट" तो हैं।
 
ज़ीज़ेक का कहना है कि अगर हिलेरी चुनाव जीत गईं तो उनसे कोई भी उम्‍मीद नहीं की जा सकती। अगर ट्रम्‍प चुनाव जीत गए तो यह एक दूरस्‍थ असंभावना ही है कि वे अमेरिका में फ़ाशिज्‍़म का सूत्रपात कर देंगे। इसकी तुलना में इसके आसार अधिक हैं कि ट्रम्‍प अमेरिकी मुख्‍यधारा के "पोलिटिकल डिस्‍कोर्स" में उथलपुथल मचा देंगे, उसमें निहित समझौतावादी प्रवृत्तियों का ख़ात्‍मा कर देंगे, उसमें बुनियादी सवालों और चिंताओं की ओर लौटने की प्रवृत्‍त‍ि विकसित करेंगे।
 
इसके बावजूद अमेरिकियों की दुविधा को समझा जा सकता है। डॉनल्ड ट्रम्प ने इन चुनावों में जिस तरह की बातें कही हैं, वे अगर "पोलिटिकली इनकरेक्ट" ही होतीं तो कोई बात नहीं थी, लेकिन उन्होंने अति को बड़ी आसानी से बहुधा लांघ दिया है। स्त्र‍ियों, अाप्रवासियों, अल्पसंख्यक मुस्ल‍िमों, अश्वेतों आदि के प्रति ट्रम्प ने जिस तरह की बातें कही हैं और चुनाव प्रचार अभ‍ियान के दौरान जिस तरह के डावांडोल व्यक्त‍ित्व का प्रदर्शन किया है, वह किसी भी प्रबुद्ध मतदाता को विचलित करने के लिए काफ़ी है। आख‍िर दांव पर एक अत्यंत महत्वपूर्ण पद है। हिलेरी क्ल‍िंंटन को मिलने वाले वोटों में से एक बड़ा हिस्सा तो उन मतदाताओं का ही होगा, जो हिलेरी को जिताने के बजाय ट्रम्प को नहीं जिताने के लिए वोट डाल रहे होंगे, अलबत्ता चुनाव प्रचार के अंतिम दिनों में स्वयं हिलेरी के बारे में जो नए खुलासे हुए हैं, उन्होंने समीकरणों को थोड़ा डगमगा अवश्य दिया है।
 
नतीजे क्या होंगे, यह जल्द ही पता चल जाएगा, लेकिन उन नतीजों के परिणाम क्या होंगे, यह देखना उससे ज़्यादा दिलचस्प होगा। आशा ही की जा सकती है कि चुनावी लोकतंत्र की प्रासंगिकता को प्रश्नांकित करने वाली विकल्पहीनता का पर्याय बन चुके ये चुनाव अपने परिणामों में दुनिया के लिए कम से कम विध्वंसक और यथासंभव कल्याणकारी सिद्ध होंगे।

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