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दीपोत्सव विशेष : दिवाली की रात में

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प्रभुदयाल श्रीवास्तव

दिवाली की रात में, दीये जलाते लोग।
मां लक्ष्मी को पूजते, चढ़ा-चढ़ाकर भोग।


 
चढ़ा-चढ़ाकर भोग, चाहते लक्ष्मी आए।
उनके घर का तमस, हमेशा को मिट जाए।

नहीं चाहते लोग, भला अब किसी और का
नवयुग का परिणाम, नतीजा नए दौर का।
 
नहीं दूसरों के लिए, बचा प्रेम-विश्वास।
किंतु दिवाली के दीये, दिखलाते कुछ आस।

दिखलाते कुछ आस, उजाला सबको देते।
कुछ पल को ही सही, तमस जगह का हर लेते।

कहते हैं ये दीप, तुम्हें भी जलना होगा। 
देकर सतत प्रकाश, अंधेरा हरना होगा।
 
खूब चलाते रातभर, चकरी-बम-अनार।
ढेर-ढेर धन फूंकते, व्यर्थ और बेकार।

व्यर्थ और बेकार, जहर सब में फैलाते।
जहरीली बारूद, जलाकर धुआं उड़ाते।

यही समय की मांग, पटाखे बंद करा दो
बचा रहे जो द्रव्य, कई स्कूल बना दो।
 
मांग दिनोदिन बढ़ रही, बिजली की हर साल।
बिजली होती जा रही, विक्रम का बेताल।

विक्रम का बेताल, करोड़ों बल्ब जलाते।
दिखा-दिखाकर शान, अकड़कर रौब दिखाते।

व्यर्थ रोशनी चमक, लपक-झपक सब रुकवा दो।
यह पैसा जो बचे, अनाथालय खुलवा दो।

 

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