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बाल कविता : चश्मा घर‌

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प्रभुदयाल श्रीवास्तव

चश्मा घर से निकला चश्मा,
दौड़ लगाकर आता।
कूद-कूद कर बाबूजी के,
कानों पर चढ़ जाता।

फिर धीरे से उतर-उतर कर,
आंखों पर छा जाता।
और अंत में नाक पकड़ कर,
वहीं टिका रह जाता।

जब थक जाते बाबूजी तो,
तुरंत कूद कर आता।
बिना किसी की पूंछताछ,
चश्मा घर में घुस जाता।

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