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बाल कविता : कैसे मामा हो तुम चंदा

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प्रभुदयाल श्रीवास्तव

कैसे मामा हो तुम चंदा, कभी हमारे घर न आए।
न ही भेजी चिट्ठी-पाती, न ही टेलीफोन लगाए। 


 
कभी हमारे घर तो आते, मां से राखी तो बंधवाते। 
तभी भांजा कहलाता मैं, तभी आप मामा कहलाते। 
अपनी जीवनकथा हमें क्यों, नहीं कभी सूचित कर पाए। 
 
खीर-पूड़ी तुमने है खाई, मेरी मां से ही बनवाई। 
कहते हुए बहुत दुःख तुमने, रिश्तेदारी नहीं निभाई। 
बोलो मुझे किसी मेले से, कितनी बार खिलौने लाए?
 
शहरों में तो याद तुम्हारी, भूले-बिसरे गीत हो गई।
चांद चांदनी हुए लापता, बिजली मन की मीत हो गई। 
अपनी करनी से तुम मामा, दिन पर दिन जा रहे भुलाए। 
 
अभी गांव-छोटे कस्बों में, झलक तुम्हारी दिख जाती है। 
शरद पूर्णिमा को मामाजी, याद तुम्हारी आ जाती है। 
नए जमाने की नई पीढ़ी, मुश्किल है तुमको भज पाए। 
 
किसे समय है आसमान में, ऊपर चांद-सितारे देखे। 
बिजली की चमचम के कारण, देखे भी होते अनदेखे। 
शायद याद तुम्हारी पुस्तक, कॉपी तक सीमित रह जाए। 
 
लोग तुम्हारी छाती को ही, पैरों से अब कुचल रहे हैं। 
और तुम्हारी धरती पर ही, अब रहने को मचल रहे हैं। 
बहुत कठिन है देह तुम्हारी, पहले सी पवन रह पाए। 

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