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बाल साहित्य : मैं और प्रभु

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अंशुमन दुबे (बाल कवि)

प्रभु! मैं हूं दर्शनाभिलाषी आपका,
मैंने ईश्वर से यह विनय किया।
चाहता हूं मैं मार्गदर्शन आपका,
तब प्रभु ने यह उत्तर दिया।
 

 
'जब तू पूर्णत: अटूट भक्ति में लीन होगा,
राग-द्वेष मोह-माया से हीन होगा।
पु‍त्र, वैरागी जब तेरा मन रहेगा,
सर्वत्र मेरी उपस्‍थिति का अन‍ुभव करेगा।'
 
मैं बोला प्रभु! क्यों जिंदगी में दुखों का अंबार है।
वे बोले, 'समझ यह मेरा उपहार है,
यह तो पिछले कर्मों के अनुसार है।'
मैंने कहा- मुझे यह खुशी से स्वीकार है।
 
मैंने प्रार्थना की प्रभु के समक्ष झुककर,
तन्हाई में मेरा बसेरा छुपा है।
वे बोले- 'ध्यान से देख रुककर,
इस अंधेरी रात में पीछे रोशन सवेरा छुपा है।'
 
मैंने कहा- प्रभु जीवन से सब कष्ट हरो,
दीन-दुखी पर कृपा करो।
जीवन में सबके आनंद भरो,
सभी मनुष्यों का जीवन सुखी करो।
 
प्रभु बोले- 'जब दु:खी-सुखी कर्म करते जाएंगे,
नि:स्वार्थी होकर फल की आस न लगाएंगे।
निर्मल मन से भक्ति करते जाएंगे तभी,
सभी अपने आपको सुखी पाएंगे।'
साभार- छोटी-सी उमर (कविता संग्रह) 
 

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