कंपकंपा रहे हैं बंदर
शीत की ठिठुरन से
लाख दुत्कारे जाने पर भी
बाहर नहीं निकल रहा है
चूल्हे के उदर से कुत्ता
और शीत की मार से
किटकिटाते दांतों वाला
दीन जन
घुसा लेना चाहता है
अपने अंगों को
अपने ही शरीर में
कछुए की भांति।
कंधे पर है
फटी-पुरानी मैली कथरी
कड़ाके की ठंड से
काया रोमांचित
इसलिए, सुबह की धूप से चित्रित
दीवार के पास खड़े होने के लिए
गुत्थमगुत्था हो रहे हैं
अभागे गरीब बच्चे।
भोर की धूप से
फीकी पड़ गई प्रभा जिसकी,
धुंधवा रही है
बिखर जाने से कुछ-कुछ,
ओस से हो गया
मधुर स्पर्श जिसका,
रात को सुलगाई गई जो
ताकि आ सके नींद किसी तरह,
भस्मशेष
उस फूस की आग की ओर
दौड़े जा रहे हैं
सोकर उठे गरीब किसान के बच्चे।