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बिच्छू बचाएंगे मरती मधुमक्खियां

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, मंगलवार, 18 मार्च 2014 (11:24 IST)
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दुनिया भर में मधुमक्खियों की कम होती गिनती ने वैज्ञानिकों को चिंता में डाल दिया है। हैम्बर्ग के वैज्ञानिक ने दावा किया है कि बुक स्कॉर्पियन यानी छोटे बिच्छू मधुमक्खियों की जान बचा सकते हैं।

हैम्बर्ग के ओटो हान स्कूल में एक स्लेटी रंग के दरवाजे के पीछे पहली मंजिल पर छात्रों के लिए मधुमक्खियों का फार्म है। यहीं क्लासरूम भी है। मधुमक्खियों के पारदर्शी छत्ते से छात्र इस कीड़े के व्यवहार की निगरानी कर सकते हैं। खाली जगह में मधुमक्खी पालन के लिए लगने वाले उपकरण रखे हुए हैं।

करीब एक दर्जन छात्र यहां हर दिन रिसर्च प्रोजेक्ट के लिए आते हैं। वे यह रिसर्च जर्मन साइंस प्रतियोगिता के लिए कर रहे हैं। यह प्रतियोगिता युवा शोधकर्ताओं के लिए है। लेकिन ये शोधकर्ता मधुमक्खियों पर नहीं, बल्कि बुक स्कॉर्पियोन यानि छोटे बिच्छुओं पर शोध कर रहे हैं। इन्हें सूडोस्कॉर्पियोन भी कहा जाता है। ये बिच्छू नहीं होते लेकिन इनके बड़े चिमटों के कारण इन्हें ये नाम दिया गया है, वैसे ये आर्थोपोडा फैमिली के कीट हैं।

कॉलोनी कोलैप्स डिसॉर्डर : छात्र पता करना चाहते हैं कि वे कैसे इन कीड़ों को प्रोत्साहित कर सकते हैं कि वे खुद ही मधुमक्खियों के छत्ते में रहने लगें। इससे ये कीड़े मधुमक्खियों के दुश्मनों यानि वारोआ माइट से लड़ सकेंगे।

जीव विज्ञान सिखाने वाले टोरबेन शिफर बताते हैं, 'वैरोआ माइट हमारी परेशानी है। सभी छत्तों में इसका संक्रमण है और पैदा होने वाली मधुमक्खियों से कहीं ज्यादा मधुमक्खियां इस कारण मर रही हैं।'

दुनिया भर में मधुमक्खियों का इतनी ज्यादा संख्या में मरने का एक बड़ा कारण ये कीड़ा है। इस प्रक्रिया को कॉलोनी कोलैप्स डिसॉर्डर कहा जाता है। वैरोआ एक परजीवी है जो मधुमक्खियों का खून पी जाता है और उनके लार्वा का भी। इसी के साथ वह बैक्टीरिया, फंगस और पैथोजन मधुमक्खी में छोड़ देता है।

परागण और जैव विविधता को बचाने में मधुमक्खियां अहम भूमिका निभाती हैं और उनके खत्म हो जाने का सीधा असर फूलों, फलों और सब्जियों की खेती पर पड़ेगा। क्योंकि इंसान भले ही मंगल पर पहुंच गया हो पर कृत्रिम परागण करवाना अभी भी उसके हाथ में नहीं है। अभी तक मधुमक्खी पालने वाले इस परजीवी से बचने के लिए फॉर्मिक एसिड का इस्तेमाल करते रहे हैं। लेकिन इस रसायन का ज्यादा इस्तेमाल भी ठीक नहीं है।

क्या करते हैं किताबी बिच्छू : माइक्रोस्कोप से जब इन कीड़ों को देखा गया तो पता चला कि ये कीड़े वैरोआ माइटस को अपने चिमटे में पकड़ लेते हैं और उन्हें अपने जहर से पैरेलाइज कर देते हैं। फिर इन्हें चूस जाते हैं और ये करते करते दूसरे वैरोआ पर भी हमला बोल देते हैं।

1951 में ऑस्ट्रिया के जीव विज्ञानी माक्स बाइयर ने मधुमक्खी और बुक स्कॉर्पियन के बीच का संबंध बताते हुए कहा था कि इससे दोनों को ही फायदा होता है। मधुमक्खियां परजीवी से बच जाती हैं और बुक स्कॉर्पियन के पास खाने का भंडार होता है। टोरबेन शिफर का मानना है कि रसायनों के कारण ये ऑर्थोपोडा गायब हो गए। उनका यह भी मानना है कि आजकल के मधुमक्खी पालक प्लास्टिक का इस्तेमाल करते हैं जो इनके लिए ठीक नहीं हैं। बुक स्कॉर्पियन को लकड़ी या अन्य प्राकृतिक पदार्थ ही चाहिए।

कई अन्य शिफर की इस बात को शंका की नजर से देखते हैं। होहेनहाइम यूनिवर्सिटी में वैरोआ माइट के विशेषज्ञ पेटर रोजेनक्रांस कहते हैं, 'यह देखना प्रभावशाली है कि प्रयोगशाला में ये कैसे वैरोआ माइट पर हमला करते हैं। लेकिन इसका असली असर देखने के लिए काफी नहीं होगा कि एकाध परजीवी मरे।' रोजेनक्रांस बताते हैं कि वसंत और पतझड़ में माइट की संख्या बहुत तेजी से बढ़ती है। इसलिए इनके इस्तेमाल से पहले विस्तृत परीक्षण करने की जरूरत है।

हालांकि टोरबेन शिफर फिर भी अपने शोध के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं। उन्होंने इस शोध को आगे बढ़ाने के लिए बायनेचर प्रोजेक्ट शुरू किया है। इसमें वे मधुमक्खी के जीवन और उसके छत्ते पर शोध करेंगे और बुक स्कॉर्पियन के बारे में जागरूकता पैदा करेंगे।

रिपोर्टः जुलियान बोने/आभा मोंढे
संपादनः ईशा भाटिया

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