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जर्मनी को आतंकी हमलों का डर

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DW

, शुक्रवार, 12 सितम्बर 2014 (12:45 IST)
सीरिया और इराक के जिहाद में जर्मनी से लड़ाके लगातार शामिल हो रहे हैं और अधिकारी चिंता कर कर के परेशान हो रहे हैं। लेकिन इसे पूरी तरह रोक पाना संभव नहीं दिख रहा।

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लंदन के किंग्स कॉलेज में कट्टरपंथी बनने की प्रक्रिया पर काम करने वाले अंतरराष्ट्रीय केंद्र के ताजा आंकड़े बताते हैं कि 74 अलग-अलग देशों से करीब 12,000 लड़ाके सीरिया में लड़ रहे हैं। इनमें से पांचवा हिस्सा विदेशी लड़ाकों का है। जर्मनी के 400 हैं।

जिहाद का रास्ता कभी भी छोटा नहीं था। जर्मनी में 40 लाख मुसलमान रहते हैं। इनमें से पांच से दस हजार ही सलाफी हैं, जो सबसे ज्यादा कट्टरपंथी हैं। जर्मनी में ऊर्जा से भरे युवा कट्टरपंथी मुसलमानों की संख्या तेजी बढ़ रही है। शहरों में वे कुरान की मुफ्त प्रतियां बांटते हैं, लोगों को कार्यक्रमों में बुलाते हैं, मस्जिदों में ग्रुप्स बनाते हैं और अपनी गतिविधियों से लोगों का ध्यान खींचते हैं। कई शहरों और गांवों में सलाफी सोशल वर्करों की ही तकनीक अपनाते हैं और उन युवाओं को लेते हैं जो उम्मीद खो चुके होते हैं।

साफ जवाब और संरचना : कट्टरपंथी बनाने के रास्ते वैसे तो अलग-अलग हैं लेकिन पैटर्न करीब करीब एक जैसा है। जर्मनी के आप्रवासन और शरणार्थी मंत्रालय (बीएएमएफ) के फ्लोरियान एंड्रेस का कहना है, 'अर्थ की तलाश या फिर जीवन में कोई बहुत बड़ा संकट कट्टरपंथी इस्लामी विचारधारा के लिए जमीन तैयार करता है।'

एंड्रेस कट्टरपंथ के मुद्दे पर बीएएमएफ सलाह केंद्र के प्रमुख हैं। वह कहते हैं कि सलाफी विचारधारा में जवाब भी साफ हैं और संरचना भी। उनके मुताबिक, 'सलाफी गुटों में सामुदायिक भावना पर बहुत जोर दिया गया है। वह खुद को संभ्रांत मानते हैं।' इन दिनों सलाफी जो भी कर रहे हैं उसके केंद्र में सीरिया है।

इस्लामिक स्टेट के मीडिया विभाग जिहाद के विज्ञापन को एक अलग ही स्तर पर ले गए हैं। सीरिया और इराक में हो रही लड़ाई को व्यावसायिक फिल्म के जरिए ऐसे दिखाया गया है जैसे कोई एक्शन मूवी हो।

सांस्कृतिक अनभिज्ञता : हालांकि ऐसा लगता है कि इराक और सीरिया में जर्मन लड़ाके कम ही अहम भूमिका निभाते हैं। राइनलैंड पैलेटिनेट में राजनीती से प्रेरित अपराध की जांच करने वाले मारवान अबो-ताम कहते हैं, 'एक समस्या है सांस्कृतिक योग्यता का नहीं होना। और इनमें से बहुत कम जर्मन सेना में रहे हैं।' इसलिए उन्हें लड़ने का भी अनुभव नहीं है। जबकि अरब देशों से वहां जाने वाले अधिकतर सेना में रहे हैं। जर्मन लड़ाकों को अक्सर आत्मघाती बम हमलावर के तौर पर भर्ती किया जाता है। ये आईएस की रणनीति का अहम हिस्सा है।

एक महीने पहले जर्मन शहर डिन्सलाकेन के फिलिप बैर्गनेर ने खुद को मोसुल में उड़ा लिया। साथ में 20 लोग मारे गए। अभी तक इराक में करीब पांच जर्मन लड़ाकों ने आत्मघाती बम हमले किए हैं, लेकिन पुष्ट मामला एक ही है।

कोई हल नहीं : सुरक्षाकर्मियों और अधिकारियों के पास इसका कोई हल नहीं। संदिग्ध लड़ाकों या सीरिया से लौटने वाले लोगों से उनका पासपोर्ट ले लेना संभव नहीं है। इसके अलावा तुर्की जाने के लिए जर्मन लोगों को वीजा लेने की जरूरत नहीं होती। ऐसे में वे आराम से तुर्की से जर्मनी आ जा सकते हैं। हालांकि उन्हें गिरफ्तार जरूर किया जा सकता है, लेकिन यह पता नहीं लगाया जा सकता कि वे सीरिया या इराक में कर क्या रहे थे।

अबू ताम कहते हैं, 'एक तीसरा ग्रुप भी है। वो जो लोग एक अभियान के साथ यूरोप को लौटते हैं और पश्चिमी समाजों से लड़ना चाहते हैं। और एक चौथा ग्रुप भी है जो चुपचाप अपना काम कर रहा है, जिसका कभी पता ही नहीं लगता।' कई ऐसे लड़ाके भी हैं जिनके बारे में अधिकारियों को पता नहीं है।

खुफिया सेवाओं को अभी तक ऐसा कोई संकेत नहीं मिला है कि सीरिया, इराक या कहीं और से लौटने वाले जर्मन लड़ाकों को देश में आतंकी हमले करने को कहा गया है। जर्मनी में आतंकी हमले की आशंका बहुत ज्यादा है। इस बीच जर्मनी ने इराक में कुर्द लड़ाकों को हथियार देने की घोषणा भी कर दी है।

बीएएमएफ के फ्लोरियान एंड्रेस मानते हैं कि स्कूलों में बच्चों को इस्लाम और सलाफियों के बारे में ज्यादा बताना चाहिए। वह कहते हैं, 'हम लगातार देख रहे हैं कि जो लोग खुद को सलाफी विचारधारा से जोड़ते हैं उन्हें असल में उस धर्म की जानकारी और अनुभव दोनों ही कम होते हैं।'

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