Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

न्याय की दहलीज पर देर भी अंधेर भी

हमें फॉलो करें न्याय की दहलीज पर देर भी अंधेर भी
, शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2015 (11:54 IST)
व्यवस्था से हैरान परेशान लोगों के लिए अदालतें न्याय के मंदिर के रुप में उम्मीद का अंतिम द्वार होते हैं। दुनिया भर में प्रचलित यह धारणा भारत में आकर तार-तार होती नजर आती है। 
आंकड़ों की बानगी देखें तो तस्वीर बिल्कुल साफ हो जाएगी। देश के 28 हाइकोर्ट में 45 लाख मामले लंबित पड़े हैं। इनमें सर्वाधिक मामले भारत के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश को न्याय देने वाले इलाहाबाद हाइकोर्ट में हैं। साढ़े दस लाख मामलों के लंबित होने का आंकड़ा इंसाफ की आस को 30 साल लंबा खींचने की हकीकत बताते हुए न्यायपालिका की भयावह तस्वीर से रूबरू करा देता है।
 
अपराध के लगातार चढ़ते ग्राफ की चिंता से जूझते इलाहाबाद हाईकोर्ट में कुल लंबित मामलों में साढ़े तीन लाख आपराधिक मामले शामिल हैं। तथ्य यह है कि एक तरफ मुद्दई न्याय की आस में परेशान हैं वहीं मामलों के लंबित होने का लाभ खुले आम घूम रहे आपराधिक मामलों के आरोपियों को मिल रहा है। इससे इतर मामले लंबित होने के कारण देशभर में लगभग दस लाख विचाराधीन कैदी स्वयं के दोषी या निर्दोष साबित होने के इंतजार में जेल की सलाखों के पीछे रहने को अभिशप्त हैं।
 
साफ है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट में लंबित मामलों का जखीरा अगर व्यवस्थागत तरीके से सुलझाएं तो अंतिम अपील की सुनवाई का नंबर 30 साल बाद आएगा। कमोबेश यही तस्वीर देश के दूसरे राज्यों के हाईकोर्टों की भी है। इसमें अभी लाखों निचली अदालतों की झलक को शामिल नहीं किया गया है। मगर उच्च अदालतों की इस हालत से समूची न्याय व्यवस्था की लचरता और पक्षकारों की लाचारी का अंदाजा असानी से लगाया जा सकता है।
 
अब बात समस्या के उस पहलू की जो इंसाफ के तराजू का संतुलन कायम रखने की जिम्मेदारी अपने नाजुक कंधों पर निभा रहे हैं। न्याय के उच्च आसन पर विराजमान न्यायमूर्ति दलदल में तब्दील होती न्याय व्यवस्था को दुरुस्त कर पाने में खुद को लाचार पा रहे हैं। आलम यह है कि इस समस्या से एक तरफ मुद्दई परेशान हैं तो जज साहिबान मामलों के लंबित होने के बोझ तले दबे हैं।
 
समस्या की जो स्याह तस्वीर इलाहाबाद, दिल्ली और पटना हाईकोर्ट से उभरती है इनमें कम जजों से काम चलाने की लाचारी तस्वीर की हकीकत पेश करती है। आंकड़े बताते हैं कि अकेले इलाहाबाद हाईकोर्ट में जजों के 160 पदों में से 70 पद खाली पड़े हैं। देश के सभी हाईकोर्ट में जजों के 906 पद हैं और इनमें से 265 पद खाली हैं।
 
विधि आयोग के अध्यक्ष जस्टिस एपी शाह इस समस्या के लिए सरकारी तंत्र और सियासी जमात को जिम्मेदार ठहराते हैं वहीं कानून मंत्री सदानंद गौड़ा संसाधनों के अभाव और पहले की सरकारों की लापरवाही को इसके लिए दोषी मानते हैं। आजादी के 70 सालों में लगातार बढ़ती आबादी के साथ साथ मुकदमों की लंबी होती फेहरिस्त को देखते हुए न्याय प्रणाली का भी विस्तार सामान्य प्रबंधन का हिस्सा था। इस पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया गया।
 
उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में हाईकोर्ट के विस्तार की मांग अब तक पूरी ना हो पाना इस बात का साफ सबूत है कि सरकारें जनता की नहीं बल्कि अपनी सियासी सहूलियत को तवज्जो देते हुए समस्या का निदान खोज रही है। नतीजतन 'न्याय आपके द्वार' महज एक सियासी जुमला बन कर रह गया है और मुकदमों के फेर में फंसे पक्षकार पीढ़ी दर पीढ़ी अदालतों की दहलीज पर दस्तक देने को मजबूर हैं।
 
कानून की किताबों में पहला अध्याय न्याय मिलने में देरी से बचने से जुड़ा है। एक लैटिन उक्ति पर आधारित इस अध्याय का संदेश है कि न्याय मिलने में देरी न्याय से वंचित करने के समान है।
 
संविधान के अनुच्छेद 21 में इसे प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हिस्सा मानते हुए समय से न्याय देने पर पूरा जोर दिया गया है। लेकिन मौजूदा तस्वीर इसे भी कानूनी जुमला साबित करने पर तुली है।
 
ब्लॉग: निर्मल यादव 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi