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प्रधानमंत्रीजी, ऐसे ही उठाइए साहसिक कदम

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, सोमवार, 28 दिसंबर 2015 (14:01 IST)
यही होना चाहिए। लेकिन सिर्फ प्रधानमंत्री के लिए नहीं बल्कि हर नागरिक के लिए कि वह जब चाहे एक दूसरे के देश जा सके, बर्थडे पार्टी में शामिल हो सके, सरप्राइज दे सके। पीएम मोदी ने अपने दौरे से संबंधों की संभावनाएं दिखाई हैं।
आम तौर पर पश्चिमी देशों के राजनेता अफगानिस्तान के दौरों की जानकारी पहले से नहीं बताते। सुरक्षा कारणों से। भारतीय प्रधानमंत्री ने यह परहेज नहीं किया, लेकिन पाकिस्तान के दौरे को पूरी तरह गोपनीय रखा। आम इंसान के लिए यह सरप्राइज होता, लेकिन प्रधानमंत्रियों के दौरे बिना बताए नहीं होते। फिर भी सरप्राइज तो है ही।
 
नरेंद्र मोदी सत्ता संभालने के बाद से ही ऐसे सरप्राइज देते रहे हैं। पहले पड़ोसी देशों के राजनेताओं को शपथग्रहण समारोह के लिए बुलाकर, फिर काठमांडू में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री से नजरें फेरकर, विदेश सचिवों की बातचीत को रोककर और अब पेरिस में अचानक नवाज शरीफ से मुलाकात कर।
 
लंबे समय तक भारत-पाक संबंधों में पाकिस्तान सरप्राइज वाला हिस्सा रहा है। पिछले कुछ सालों से यह भूमिका भारत ने संभाल ली है। मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार ने इस नीति को और संवारा तराशा है और पाकिस्तान की स्थायी भारत विरोधी नीति का जवाब कभी हां कभी ना से दे रहा है। लेकिन इस बात का गुमान किसी को भी नहीं होना चाहिए कि पाकिस्तान जैसे देश को दबाकर उससे कुछ मनवाया जा सकता है।
 
पाकिस्तान की मुख्य समस्या उसके अस्तित्व से जुड़ी हुई है। बांग्लादेश के टूटने का दर्द भुलाना आसान नहीं होगा। दिलचस्प है कि प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान दौरे के लिए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन को चुना है। वही अटल बिहारी वाजपेयी जो पाकिस्तान के दौरे पर जाने वाले अंतिम भारतीय प्रधानमंत्री थे।
 
उन्होंने नवाज शरीफ के साथ मिलकर पारस्परिक संबंधों का नया अध्याय खोलने की कोशिश की थी। लेकिन परवेज मुशर्रफ की सेना ने इसमें अड़ंगे लगा दिए। ये भी सच है कि कोई भी कांग्रेसी नेता जनमत के विरोध के डर से पाकिस्तान के साथ गंभीर समझौता करने में हिचकेगा। मनमोहन सिंह ने दस साल तक पाकिस्तान न जाकर इसे साफ कर दिया।
 
प्रधानमंत्री के इस फैसले का स्वागत होना चाहिए। इसलिए भी कि सिर्फ बीजेपी की सरकार ही पाकिस्तान विरोधी तबके को शांत करने और पाकिस्तान के साथ संबंधों को सामान्य बनाने की पहल कर सकती है। अप्रत्याशित फैसला लेकर प्रधानमंत्री ने नेतृत्व का परिचय तो दिया ही है, समय की संभावनाओं का इस्तेमाल करने के हुनर को भी एक बार फिर दिखाया है। अब जरूरत है लाहौर में हुए फैसलों को लागू करने की।
 
विभाजित जर्मनी में पश्चिम जर्मनी के नेता विली ब्रांट की ओस्ट पोलिटिक की तरह भारत में नरेंद्र मोदी की वेस्ट पोलिटिक का मकसद भी विभाजित परिवारों की हालत को सुधारना और संबंधों का सामान्य बनाना होना चाहिए। शांति आर्थिक प्रगति लाएगी, जो सबके हित में होगी।
 
रिपोर्ट- महेश झा

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