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दम घोंटती वीआईपी संस्कृति

हमें फॉलो करें दम घोंटती वीआईपी संस्कृति
, बुधवार, 4 मार्च 2015 (15:41 IST)
कभी वीआईपी का मतलब चंद लोग थे या फिर सूटकेस। आज गली गली में वीआईपी हैं। वास्तविक विकास के लिए भारत को इस वीआईपी कोढ़ से मुक्ति पानी होगी।
वीआईपी सिर्फ नेता नहीं होते। इसमें वो लोग भी हैं जो गाड़ी पर स्टीकर चिपकाकर खुद को वीआईपी साबित करने की कोशिश करते हैं। पत्रकार, एडवोकेट, डॉक्टर, पार्षद, जिलाध्यक्ष, नगर संयोजक, छात्रसंघ नेता, पुलिस, आदि आदि, इन लोगों की कोशिश होती है कि स्टीकर के जरिए लोग और प्रशासन समझ जाएं कि ये कोई मामूली आदमी नहीं हैं।
 
एक जमाना था जब गाड़ी पर प्रेस, डॉक्टर या एडवोकेट इसलिए लिखा जाता था ताकि राह से गुजरते हुए कोई भी जरूरतमंद संपर्क कर सकें। मौके पर समय से पहुंचा जा सके। शासन की गाड़ियों पर लाल और नीली बत्तियां लगाई गईं, ताकि विलंब न हो और लोग समझ जाएं कि सरकार के नुमाइंदे उनके इलाके में है। इन प्रक्रियाओं के पीछे एक सार्थक सोच थी।
 
आज ये सोच नदारद हैं। जातिवाद और संप्रदायवाद की जगह अब वीआईपीवाद ले रहा है। बड़ा वीआईपी, राज्य का वीआईपी, इनसे थोड़ा छोटा वीआईपी और लोकल वीआईपी, ये सामाजिक व्यवस्था के नए वर्ग हैं। छोटा वीआईपी होने का मतलब है कि आपको लाइन में खड़ा नहीं होना पड़ेगा, पुलिस आपको रोकने में हिचकिचाएगी, आपकी आवाज में एक अकड़ होगी, बात करने का लहजा आदेशात्मक या चेतावनी भरा होगा और कोई आपको नियम पालन की हिदायत देने की गुस्ताखी नहीं करेगा।
 
बड़े वीआईपी इससे ऊपर हैं, वो जब गुजरेंगे तो सड़क खाली करा दी जाएगी। ट्रैफिक जाम हुआ तो उनके सायरन घनघना उठेंगे। जिस इलाके में सड़क भी न हो वहां उनके लिए हैलीपैड बनाया जाएगा। आम आदमी उनके सामने दीन हीन सा लगेगा। उनके लिए हर काम चुटकी बजाने जैसा होगा। आस पास चाटुकारों की फौज खड़ी रहेगी, जो हर वक्त प्रशस्ति गीत गाएगी। आम लोगों के लिए ये चाटुकार भी किसी वीआईपी से कम नहीं।
 
इन परिस्थितियों के बावजूद यह कहना कि देश का संविधान हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है, ये बात ललित निबंध जैसी लगती है। समानता के कौन से अधिकार?
 
संविधान, लोकतांत्रिक या मानवीय मूल्यों की अगर जरा भी परवाह है तो इस विशिष्ट वर्ग को पहले खुद को समाज का हिस्सा मानना होगा। पद या रसूख के अहंकार को त्याग कर आम इंसान जैसी जिंदगी जीनी पड़ेगी। तभी पता चलेगा कि घंटों लाइन में खड़े होकर गैस सिलेंडर का इंतजार करना कैसा होता है। बस या ट्रेन में भेड़ बकरी की तरह घुसकर यात्रा करना कैसा होता है। सरकारी अस्पताल की जनरल ओपीडी की गंध कैसी होती है। सही मांग के लिए भी कैसे जूतियां रघड़नी पड़ती हैं।
 
विशिष्ट लोगों को आम भारतीय की तरह जी कर ही देश की वास्तविक परेशानियां समझ में आ सकती है। ऐसा हुआ तो टिकाऊ और बेहतरीन समाधान निकलेंगे। वरना, फाइलों पर दस्तखतों की नूराकुश्ती और नीति निर्माण की चर्चाएं होती रहेंगी।
 
ब्लॉग: ओंकार सिंह जनौटी

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