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आदिम आत्मा की वर्णमाला के आलोकित अक्षर

जीवन के रंगमंच से ....

हमें फॉलो करें आदिम आत्मा की वर्णमाला के आलोकित अक्षर

रवींद्र व्यास

सैयद हैदर रजा के साथ बिताए आत्मीय पल
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वह गुनगुनी धूप में नहाता एक अविस्मरणीय दिन था। महाकाल की नगरी उज्जैन में एक खास मौके पर यह उनकी तेजोमय और गरिमामय मौजूदगी थी। पिछले साल 25,26 और 27 जनवरी को कालिदास अकादमी में कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी पर एकाग्र अभिनव रंगमंडल संस्था द्वारा आयोजित कार्यक्रम विवक्षा का ख्यात चित्रकार सैयद हैदर रज़ा उदघाटन करने आए थे।

26 जनवरी को दूसरे सत्र में एक खूबसूरत कैटलॉग जारी किया गया था-रजा का समय। इसमें रज़ा साहब के लिए अशोक वाजपेयी, विनोद कुमार शुक्ल, ध्रुव शुक्ल और मधु शर्मा की कविताएँ प्रकाशित हैं। लेकिन इसका खास आकर्षण है रज़ा साहब के 16 रंगीन पेंटिंग्स।

साथ है रज़ा साहब का एक ब्लैक एन व्हाइट फोटो-चिंतन मग्न और मोहक मुद्रा में। यह आकस्मिक नहीं है कि रज़ा हिंदी कवियों के बीच एक मोहक-प्रेरक उपस्थिति रही है। और उनके रंगों की महक कवियों को बहुत ही विनम्रता और आत्मीयता से, लगभग मौन रहते हुए आमंत्रित करती रही है।

यही कारण है कि वे समकालीन चित्रकला के ऐसे विरल चित्रकार हैं जिन पर सबसे ज्यादा कविताएँ लिखी गईं। रज़ा का समय इसी का बहुत ही कल्पनाशील साक्ष्य है। इसमें रज़ा और उनकी पेटिंग्स पर कविताएँ हैं लेकिन ये कविताएँ न तो किसी तरह उनकी पेंटिंग्स की पूरक लगती हैं औऱ न ही उनके चित्रों का कविता के स्पेस में कोई अर्थ विस्तार।

अशोक वाजपेयी ने इस कैटलॉग की अपनी छोटी सी भूमिका में लिखा है कि कविता के साथ रज़ा के चित्रों का चयन बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से नहीं किया गया है। चित्र और कविता अगल-बगल हैं अपनी स्वायत्त हदों में स्पंदित। अशोक वाजपेयी की दो कविताएँ रज़ा का समय और अपना सारांश बन गई चट्टान इसमें प्रकाशित है।

इनमें अशोकजी ने रज़ा के व्यक्तित्व और रचनाकर्म को अनूठे-अछूते बिम्बों और काव्यवचनों से मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है। उदाहरण के लिए-
* समय
पेड़ों और झाड़ियों से घिरा
पत्थर का मकान नहीं है
तुम उसमें रखी पत्थर की भारी मेज पर
कभी बिछाते हो कागज
कभी अपनी आकांक्षा,
कभी अपने जीवन का इकट्ठा हुआ
सारा अवसाद लेकिन तुम रह नहीं पाते उसमें
क्योंकि तुम बसे हो
अपने अमिट रंगों में,
उनकी द्युतियों में
उनकी परतों के बीच
स्पंदित अंधेरों में।

इसके अलावा उनकी ये कविता पंक्तियाँ भी दृष्टव्य हैं-
*मैं उठाता हूँ नाम,
मध्यप्रदेश के वनभूगोल से ककैया,
बाबरिया, बचई,मंडला, दमोह, नरसिंहपुर
और ये तुम्हारे आकाश में
ओसभरी वनस्पतियों से झिलमिलाते-जगमगाते हैं जैसे तुम्हारी
आदिम आत्मा की वर्णमाला के
कुछ आलोकित अक्षर हों।

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विनोदकुमार शुक्ल ने अपनी खास शैली में रज़ा के चित्रों का देखना और ध्रुव शु्क्ल ने चार कविताएँ पूजा की थाली, कैनवास के आँगन में, रंगों का उपहार और अलौकिक माँ शीर्षक कविताओं में रज़ा के मार्मिक-मोहित करने वाले रंगों पर कविताएँ लिखी हैं। वस्तुतः यह बुकलेट आर्ट एलाइव नई दिल्ली में 13 जुलाई 2007 को दक्षिण फ्रांस में रजा के गाँव गोर्बियो में उनके द्वारा स्थापित किए जा रहे रज़ा-मोंजीला फाउंडेशन की पहली प्रदर्शनी के शुभारंभ पर प्रकाशित की थी।

मैं दो दिन उज्जैन में इसीलिए रहा कि रज़ा साहब का सान्निध्य पा सकूँ। मैंने उनसे बातें की, उनके साथ रहा और उनके साथ ही बैठकर अशोक वाजपेयी की कविताएँ सुनीं। उन्होंने इस बुकलेट पर लिखा विद अफेक्शन रवींद्। फिर अपने खूबसूरत हस्ताक्षर किए। मैंने उनसे आग्रह किया कि क्या मैं उनके साथ एक फोटो खींचवा सकता हूँ। वे सहर्ष तैयार हुए। ये दोनों चीजें मेरे लिए अमूल्य हैं।

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