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आवाज ही जिनकी पहचान बन गई

दूरदर्शन के स्थापना दिवस पर विशेष

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, रविवार, 15 सितम्बर 2013 (16:46 IST)
ऋषि गौतम

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आज सूचना क्रांति के दौर में आज हमारे पास सैकड़ों न्यूज चैनल हैं, हजारों न्यूज रीडर्स हैं। लेकिन एक वो दौर भी था जब हमारे पास सूचना के स्त्रोत के रूप में सिर्फ दूरदर्शन ही था और उनमें थे कुछ ऐसे जाने-पहचाने नाम, जिनकी आवाज और रंग-ढ़ंग उनकी पहचान बन गई, जो भविष्‍य के लोगों के लिए मिसाल बना। आज दूरदर्शन के स्थापना दिवस के मौके पर हम आपको रूबरू करवा रहे हैं उस जमाने के कुछ न्यूज एंकर और एनाउंसर से....

सलमा सुलतान-

इन्होंने 1967 से 1997 तक दूरदर्शन के साथ समाचार-वाचक के रूप में काम किया। वे स्क्रीन पर दिखने वाली सबसे अधिक लोकप्रिय समाचार-वाचक थीं। धीर, गंभीर आवाज और हाव-भाव की स्वामिनी सलमा जी के फ़िल्मी सितारों की तरह लाखों फ़ैन्स थे। उन्हें उस समय दूरदर्शन की सर्वश्रेष्ठ समाचार-वाचक होने का खिताब भी मिला था।

इनके लंबे और सुखद खबरों की दुनिया के सफर के दौरान एक वाक्य का इनके जीवन में बहुत अहम रोल रहा है। वह वाक्य है- 'आज के समाचार इस प्रकार हैं...'। यह इसी तरह से दूरदर्शन पर अपने बुलेटिन का आगाज किया करती थीं। अब भी इस लाईन ने इनका पीछा नहीं छोड़ा है। करीब 16 साल पहले यानी 1997 में इन्होंने आखिरी बार दूरदर्शन पर खबरें पढ़ीं थी। लेकिन आज भी जब लोग इनसे मिलते हैं, तो इस वाक्य को इनके सामने दोहराने लगते हैं। इतना ही नहीं इतना वक्त बीत जाने के बाद आज भी कुछ को इनकी साड़ी पहनने का स्टाईल याद हैं, तो कुछ को याद आता है इनका अपने बालों में चमेली के फूलों को लगाना।

तब से लेकर अबतक इन्होंने दूरदर्शन पर हजारों बार खबरें पढ़ीं लेकिन इंदिरा गांधी की मौत की खबर देना इनके लिए सबसे मुश्किल था। वह कहती हैं कि 'इंदिरा गांधी की हत्या की खबर देश को देना मैं हमेशा याद रखूंगी। उस खबर को पढ़ने से पहले मैं कांप रही थी। इतनी बड़ी शख्सियत की मृत्यु का समाचार पढ़ना मेरे लिए आसान नहीं था।

दूरदर्शन में इनके खबरें पढ़ने के सफर का आगाज बड़ा ही अजीबोगरीब अंदाज में हुआ। 1967 में जब यह दिल्ली के आईपी कालेज में इंग्लिश ऑनर्स कर रही थीं उसी दौरान दूरदर्शन पर एनाउंसर के रूप में भी काम करना शुरू कर दिया था। उस दौर में प्रतिमा पुरी और गोपाल कौल ही न्यूज रीडर थे। कौल साहब का अपने सीनियर्स से किसी मसले पर पंगा चल रहा था। एक दिन वह सिर मुंडवा कर दफ्तर आ गए। उन्हें देखकर प्रोड्यूसर महोदय की परेशानी से पसीना छूटने लगा। वह भागे-भागे इनके पास आए और कहने लगे-'तुम्हें आज न्यूज पढ़नी होगी। 'लेकिन यह न्यूज रीडर नहीं बनना चाहती थी, ऐसे में यह सुनते ही इनके तो हाथ-पैर फूल गए। बहरहाल, फौरन इनका ऑडिशन टेस्ट हुआ और उसमें कामयाब रहीं। पर इन्होंने 15 मिनट का बुलेटिन 10 मिनट में ही पढ़ दिया। फिर भी इनका काम इनका काम इनके सीनियर्स को पसंद आया। उसके बाद तो खबरें पढ़ने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह लंबे वक्त तक जारी रहा।

जे.वी.रमण

इन्हें दूरदर्शन न्यूज को छोड़े हुए एक लंबा अरसा गुजर गया है, पर अब भी गाहे-बगाहे लोग इन्हें पहचान लेते हैं और रोक कर पूछते हैं-'आप तो न्यूज पढ़ते हैं न? 'इनका नाम जानने के बाद कुछ लोग तो यह सवाल भी कर देते हैं कि आप हिंदी प्रदेश के तो नहीं लगते, फिर भी आप इतनी साफ-सुथरी हिंदी कैसे बोले लेते हैं? इस सवाल पर इनका कहना है कि 'हिंदी हालांकि मेरी मातृभाषा नहीं थी। हिंदी से मेरा संबंध दिल्ली आने के बाद बना। मेरे पिता डॉक्टर थे। वह यहां पर 1955 में आए। मैं उस वक्त स्कूल में पढ़ रहा था। यहीं पर स्कूल में हिंदी पढ़ी जो बाद में मेरे काम आई।'

1973 में एक बार जब यह दूरदर्शन से जुड़े़ तो 30 साल तक जुड़े़ रहें। आगे यह कहते हैं कि उस दौर में आज की तरह 15 सेकंड की फुटेज से आधे घंटे खेलने को समाचार नहीं कहा जाता था। तब शाम 8 बजे का दूरदर्शन का बुलेटिन प्रमुख होता था क्‍योंकि उसे पूरा देश देखता था। समाचारों का मतलब दिन-भर की घटनाओं को दर्शकों के सामने बिना किसी निजी राय या दृष्टिकोण को परोसना था।

शम्मी नारंग-

अब भी दिल्ली मेट्रो में इनकी आवाज गूंजती है। सलमा सुल्तान की तरह यह भी दूरदर्शन से अकस्मात ही जुड़े़। यह मानते हैं कि नियती बहुत बड़ी चीज होती है। अगर यह बात न होती, तो मैं इंजीनियर होता, जिसकी मैं पढ़ाई कर रहा था। मैं खबरों और वॉयस ओवर की दुनिया से बहुत दूर होता। वालिद साहब की चाहत थी कि मैं डॉक्टर बनूं या इंजीनियर। मैं उनके सपने को पूरा करने की तरफ बढ़ रहा था। पर नियति तो मुझे खबरों की दुनिया की तरफ धकेल रही थी।

कॉलेज के एक कार्यक्रम में इनकी आवाज से एक शख्स इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इनसे कहा कि आप दूरदर्शन में न्यूज रीडर की पोस्ट के लिए अप्लाई क्यों नहीं करते। उनकी सलाह को मानते हुए इन्होंने दूरदर्शन में अप्लाई कर दिया। फिर एक दिन टेस्ट दिया और हो गया सिलेक्शन।

14 जून 1983 को पहली बार इन्होंने न्यूज बुलेटिन पढ़ा था। 2001 के जून में इन्होंने दूरदर्शन को अलविदा कह दिया। बाद में जब दिल्ली में मेट्रो रेल शुरू होने वाली थी तो उसके कर्ताधर्ता श्रीधरन जी ने इन्हें मेट्रो में की जाने वाली एनाउंसमेंट के लिए बुलाया। उन्हें इनका काम इतना पसंद आया कि उन्होंने कहा कि देश में जिधर भी मेट्रो चलेगी, तुम्हारी आवाज गूंजेगी।

ज्योत्सना-

आपको यकीन नहीं होगा लेकिन इन्हें इनकी आवाज से देश के प्रधानमंत्री तक जानते थे। ये भी न्यूज रीडर नहीं बनना चाहती थीं। न्यूज रीडर के मौके बार-बार मिलने के बावजूद ये एनाउंसर ही बने रहना चाहती थीं। लेकिन इन्हें भी पहचान मिली दूरदर्शन पर न्यूज रीडर के रूप में।

1975 की बात है। यह गार्गी कॉलेज में पढ़ाई के दौरान नाटकों, डिबेट वगैरह में बहुत एक्टिव थीं। गार्गी कॉलेज स्टूडेंट यूनियन की प्रेजिडेंट भी रही। कॉलेज खत्म होने लगा, तो ख्याल आया कि आगे क्या करेंगी। तब दूरदर्शन में एनाउंसर की कुछ पोस्ट भरी जा रही थीं तो इन्होंने अप्लाई कर दिया। फिर स्क्रीन और वॉयस टेस्ट के बाद इनका चयन हो गया।

एक वक्त की बात है यह एक कार्यक्रम को प्रस्तुत कर रहीं थी, उस वक्त वहां इंदिरा गांधी भी दूरदर्शन के एक कक्ष में मौजूद थीं। कार्यक्रम के समाप्त होते ही इंदिरा जी ने इन्हें बुलाया। यह डरते-डरते उनके पास गई, तो उन्होंने छूटते ही इनसे पूछा कि तुमने यह साड़ी कहां से ली है? इन्होंन उन्हें बताया कि इसे मैंने दिल्ली के उडि़या एम्पोरियम से लिया है। फिर उन्होंने कहा कि मैं भी खरीद लूंगी इसी डिजाइन की साड़ी। अब आप समझ सकते हैं कि उस दौर में दूरदर्शन से जुड़े होने का क्या मतलब होता था।

इस सबके बाद अब तो आपको दूरदर्शन की महत्ता का अंदाजा हो ही गया होगा। कोई शक नहीं कि दूरदर्शन ने ही लोगों को अहसास कराया कि जिंदगी टेलीविजन के कितनी करीब है। आज फैशन, खेल, समाचार, गीत-संगीत, कार्टून, सिनेमा, स्वास्थ्य, भक्ति, कृषि और भी न जाने किस-किस विषयों के लिए चैनलों की भरमार है, पर लगभग दो दशक पहले तक केवल दूरदर्शन ही था, जिस पर जिंदगी के तमाम रंगों से लोगों का सामना होता था।

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