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कच्चा पापड़, पक्का पापड़

जीवन के रंगमंच से

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निर्मला भुरा‍ड़‍िया

ND
पुराने जमाने में एशिया के कुछ हिस्सों में एक गजब परंपरा थी, जो बीसवीं सदी की शुरुआत तक भी कायम रही। इन दिनों फारस, तुर्की, अजरबैजान इलाकों में स्थानीय कथाकार-गवैए घूमा करते थे, जो गली-गली में घूम-घूमकर कवित्त, लोक कथाएं, ऐतिहासिक गाथाएं, वीरों के किस्से, धार्मिक आख्यान आदि गाया करते थे। इन्हें 'आशोख' कहा जाता था।

ये आशोख अक्सर बगैर पढ़े-लिखे होते थे, इन्होंने विद्यालय का तो शायद मुंह भी नहीं देखा होता था। मगर ये गुरु-शिष्य परंपरा से सीखते थे। इनकी याददाश्त गजब होती थी, अतः बगैर लिखा गया ज्ञान भी उनके जरिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित हो जाता था।

उन्नीसवीं सदी के प्रसिद्ध दार्शनिक व लेखक गॉरजेफ के पिता भी एक आशोख थे। अपने पिता का गॉरजेफ पर गहरा प्रभाव रहा। गॉरजेफ के पिता बेबीलोन के महान नायक गिलगिमिश की कथा कवित्त के रूप में गाया करते थे। जो गॉरजेफ को भी शब्दशः याद हो गई थी। पिता की मृत्यु के कई सालों बाद गॉरजेफ एक पत्रिका के पन्ने पलट रहे थे, तो उनकी नजर बेबीलोन के खंडहरों की खुदाई संबंधी एक लेख पर गई।

उस खुदाई में चार हजार साल पुराने शिलालेख मिले थे, उन पर लिखी गई गाथा के कूट खोले गए और इस मैग्जीन ने उसमें से कुछ सामग्री तात्कालिक भाषा में प्रकाशित की। यह पढ़कर गॉरजेफ दंग रह गए कि इसमें गिलगिमिश की वह कवित्तमय गाथा वैसी की वैसी थी जैसी कि उनके पिता और अन्य आशोख गाया करते थे। हजारों सालों का सफर पार करके, पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक बल पर हस्तांतरित होकर यह गाथा वर्तमान पीढ़ी तक पहुंची थी।

जी हां, मनुष्य की स्मृति के आश्चर्य ऐसे ही होते हैं। भारत में भी वाचिक परंपरा की जड़ें बहुत गहरी रही हैं। यहां भी बंजारे जीवन के गीत सुनाते रहे हैं। घुम्मकड़ संत गीत और गाथाएं लेकर खंजड़ी बजाते गली-गली घूमते रहे हैं। भारतीय बच्चे दादी-नानी की कहानियों के मुरीद रहे हैं। किस्सागो बुजुर्गों के पोपले मुंह से निकले अनुभव बच्चों पर अमिट छाप छोड़ते हैं- यह सच है, भले आज के मां-बाप मानने को तैयार हों या न हों। कहावतें, मुहावरे वगैरह भी अक्सर लोकस्मृति से ही आते हैं, भले वे कहीं लिखे मिलें, न मिलें। इस्लाम में भी जो कुरान की पूरी की पूरी आयतें याद कर ले उसे हाफिज की उपाधि दी जाती है।

पढ़ने वाले विद्यार्थी अक्सर इस बात से जूझते हैं कि कहीं याददाश्त समय पर धोखा न दे जाए। स्मृति बढ़ाने वाले तरह-तरह के सीरपों के विज्ञापन परीक्षाओं के वक्त दिखाई पड़ते हैं, जिसमें से बहुत कुछ मात्र धोखा ही होता है। जड़मति तो अभ्यास करते-करते ही सुजान होती है। बुजुर्गों को भी सबसे ज्यादा जो चीज परेशान करती है वह होती है कमजोर होती याददाश्त।

अतः स्मृति सुधारने के नुस्खे सबको चाहिए होते हैं। स्मृति को अक्षुण्ण रखने के कई उपाय हैं उनमें से रटना भी एक है। बहुत सी चीजों को कंठस्थ करना ही अच्छा होता है। जैसे कि पहाड़े। तभी वह आपातकाल में सहायता के लिए आपके पास आते हैं। रटे हुए पहाड़े भेजे से दनादन निकलते हैं। पहले भारतीय विद्यार्थियों का गणित इसलिए भी तेज होता था कि उन्हें पहाड़े तो क्या अद्दे-पव्वे भी याद होते थे। कुछ फॉर्मूले कुछ समीकरण ऐसे होते हैं कि जिन्हें समझने के साथ रट लेना भी अच्छा होता है। शब्दार्थ हमेशा काना-मात्रा (स्पेलिंग) सहित याद होना चाहिए।

संस्कृत के श्लोक याद करके सस्वर जोर-जोर से बोलना स्पीच थैरेपी के लिए अच्छा है। मगर हां रटंत-विद्या का सही चीज के लिए और सही तरीके से उपयोग करना ही उचित है। तोता-पंडित विद्वान नहीं होते। गीता के समस्त श्लोक रट लेने वाला व्यक्ति गीता-ज्ञानी नहीं होता। ज्ञान प्राप्ति के लिए समझकर ग्रहण करना जरूरी है। रटना भी है तो समझकर। कई बार वाद-विवाद में भाग लेने वाले विद्यार्थी विषय को समझने के बजाए रटकर चले जाते हैं। अटक जाते हैं तो हूटिंग का शिकार होते हैं। रटकर डिबेट बोलना गलत है, बेमानी है।

मगर यदि किसी व्यक्ति को ढेर सारी शेरो-शायरी याद है तो वह महफिल की जान बन जाता है। यहां जुबां पर बैठे शेर काम आते हैं। कोचिंग क्लास की एक्जाम क्रेक करने वाली रटाई सचमुच शिक्षित नहीं बनाती। वहीं कुछ चीजें जिव्हाग्र पर रखने का प्रयत्न करना एक प्रकार का ब्रेन जिम भी है, जो युवाओं और उम्रदराज लोगों दोनों के लिए ही समान रूप से लाभकारी है।

कुछ टंग ट्विस्टर्स भी होते हैं, जो याद कर लेने पर खेल का मजा भी देते हैं, उच्चारण भी सुधारते हैं और दिमाग की कसरत भी करवाते हैं। जैसे कच्चा पापड़, पक्का पापड़। या बेटी बॉटर बॉट सम बटर, बट द बटर बेटी बॉटर बॉट वॉज बिटर, सो बेटी बॉटर बॉट सम बेटर बटर टू मेक द बिटर बटर बेटर। खा गए न चकरी। रटे बगैर यह जिव्हा-योगा हो ही नहीं सकता!

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