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आचार संहिता का अचार

हमें फॉलो करें आचार संहिता का अचार
- राजकुमार कुंभज
Devendra SharmaWD
'आचार संहिता का अचार' बना देने वालों की अब खैर नहीं रही। मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी की अगुवाई वाली टीम ने राजनीतिक दलों सहित जिला कलेक्टरों तक को कसना शुरू कर दिया है। चुनाव आयोग, आचार संहिता का सख्ती से पालन करवाने के इरादे से अपना मॉनीटरिंग-तंत्र मजबूत करने में जुट गया है। ब्लॉक स्तर पर, ब्लॉग और स्क्वॉड बनाए जा रहे हैं।

शिकायतों की तत्काल सुनवाई की जा रही है। सुनवाई बाद तत्काल समीक्षा की जा रही है। समीक्षा बाद तत्काल संबंधितों को निर्देश जारी किए जा रहे हैं। निर्देश बाद तत्काल कार्रवाई-रिपोर्ट ली जा रही है। जहाँ-जहाँ से भी 'आचार संहिता का अचार' बना देने वालों की शिकायती खबर मिलेगी, उस शिकायती खबर पर तत्काल जाँच अधिकारी घटनास्थल पर पहुँचेंगे।

जाँच अधिकारी अपनी रिपोर्ट कलेक्टर को देंगे। कलेक्टर ऐसे तीन सक्षम अधिकारियों की टीम बनाएँगे जिनके पास 'वाहन' होंगे। वाहन शब्द पर गौर किया जा सकता है। कलेक्टर सिर्फ ऐसे अधिकारियों की ही टीम बनाएँगे, जिनके पास 'वाहन' होंगे।

'वाहन' शब्द के साथ 'आचार संहिता का अचार' बना देने वाली व्यवस्था में फिलहाल इस तथ्य का उल्लेख नहीं आ रहा है कि वाहन निजी होंगे या सरकारी? 'वाहन' प्राप्ति की प्रक्रिया दबावमुक्त होगी या दबावयुक्त?'वाहन' प्राप्त कर लिए जाने की ऐवज में वाहनों के मूल स्वामियों को कुछ लाभ भी पहुँचाया जाएगा या कि फिर सिर्फ 'टरका' दिया जाएगा?

'आचार संहिता का अचार' बना देने की 'वाहन विधि' क्या होगी? अर्थात रेसिपी 'वाहन' भी उनका 'वाहक' भी उनका। 'ईंधन' भी उनका तो 'गंतव्य' किनका? नैतिकता और ईमानदारी का पाठ पढ़ने-पढ़ाने वालों को 'आचार संहिता का अचार' भी खाना चाहिए। ये अचार बनाया है मध्यप्रदेशीय दो राज्यमंत्रियों के सरकारी वाहन चालकों ने। दो राज्यमंत्रियों के रूतबों की ज़रा भी परवाह न करते हुए, इन ड्राइवरों ने, राज्य मंत्रियों को 'आचार संहिता का अचार' चखा दिया। आखिर कैसे न चखाते? कोई पैसे तो देने नहीं थे।

मालूम हो कि जिला कलेक्टर ही, जिला निर्वाचन अधिकारी होता है। जिला कलेक्टर की सक्षम अनुज्ञा से ही, जिले के सक्षम लोगों को सक्षम हथियार रखने की सक्षम अनुमति दी जाती है। सक्षम चुनाव आचार संहिता के तहत सभी सक्षम लायसेंसी-हथियार, सक्षम कलेक्टर को सौंप दिए जाते हैं। फिर भी हम देखते हैं और पाते हैं कि समूची सक्षम चुनावी प्रक्रिया के दौरान सक्षम हथियारों का सक्षम उपयोग 'खुलकर' किया जाता है। यहीं 'आचार संहिता का अचार' याद आ जाता है।

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लायसेंसी हथियार जमा करवा लिए जाने के बाद, हथियारों का उपयोग 'खुलकर' कैसे हो जाता है? अनेक बार तो होता यह भी है कि 'हत्याएँ' तक हो जाती हैं और जिम्मेदार अधिकारी 'आचार संहिता का अचार' लीपते-चाटते रहते हैं, किंतु मध्यप्रदेशीय दो राज्यमंत्रियों के वाहन चालकों ने ऐसा अचार लीपा है जैसे कि किसी ने मुँह में पिसी लाल मिर्च, नाक पकड़कर उडेल दी हो और वह भी पानी की पहुँच से कोसों दूर, मध्यप्रदेश के गृह राज्यमंत्री रामदयाल अहिरवार और लोक स्वास्थ्य राज्यमंत्री गंगाराम पटेल समझ ही नहीं पा रहे हैं कि वे अपने ड्राइवरों की इस 'निर्भीक हेकड़ी' का आखिर क्या करें? ये 'आचार संहिता का अचार' है भइए। थोड़ा अटपटा, तो थोड़ा चटपटा है। खाए जाओ, खाए जाओ 'राजमोला' के गुण गाए जाओ।

थोड़ा मजेदार मामला ये भी है कि राम के नाम पर बनने वाली उक्त सरकार के उक्त दोनों राज्यमंत्रियों के नाम में 'राम' जुड़ा है। रामदयाल और गंगाराम लेकिन ड्राइवर थे कि दोनों को राम-राम कह गए। 'कोड ऑफ कंडक्ट' की ऐसी फुर्ती दिखाई कि 'राम नाम' याद आ गया। अनुकूल कानून-कायदे।

  'आचार संहिता का अचार' बना देने की 'वाहन विधि' क्या होगी? अर्थात रेसिपी 'वाहन' भी उनका 'वाहक' भी उनका। 'ईंधन' भी उनका तो 'गंतव्य' किनका? नैतिकता और ईमानदारी का पाठ पढ़ने-पढ़ाने वालों को 'आचार संहिता का अचार' भी खाना चाहिए।      
दैनिक कामकाज और दैनिक राजकाज चलाने के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान करते हैं, लेकिन ये क्या हुआ जाता है कि दो राज्यमंत्रियों को उनके ड्राइवरों ने 'आचार संहिता का अचार' चखाकर किंचित प्रतिकूल वातावरण दे दिया? इस किस्म की घटनाओं से 'लोक' तो खुश हुआ जाता है किंतु तंत्र की मान-मर्यादाओं का बंद पिटारा भी कुछ इस तरह खुलता जाता है कि हमारे 'लोकनेता' किस हद तक 'लोकतंत्र' को, 'लोक-रक्काशा' बनाए लिए जाते हैं?

मंत्रियों और मंत्रियों के मातहत चाटुकार किस्म के नौकरशाहों द्वारा कानून-कायदों की जैसी धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं, उसे देख-समझकर तो निचले स्तर के ईमानदार-दद्दू कर्मचारियों तक का हतोत्साहित होते रहना जरा भी अस्वाभाविक नहीं है। क्योंकि बड़े साहब का हुक्म, छोटे मातहतों के लिए लोकतंत्र, संविधान और अपनी जिम्मेदारी-ईमानदारी से भी बड़ा बन जाता है?

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दो मंत्रियों के इन अदने से ड्राइवरों ने इस मिथक को तोड़ा है। उन्होंने अपनी साधारणता से एक नई असाधारणता की नींव रखी है। शक है कि उन्हें प्रोत्स‍ाहित किया जाएगा और शक नहीं कि उन्हें हतोत्साहित नहीं किया जाएगा।

जबकि रेडकॉर्नर-नोट नोट किया जा सकता है कि मंत्रियों के ड्राइवरों ने ऐसा-वैसा कुछ भी नहीं किया है, जो उन्हें नहीं करना था। उन्होंने वही किया जो उन्हें करना चाहिए था। इस समूचे घटनाक्रम में एक और गौर करने लायक बात यह भी रही कि मंत्रियों के ड्राइवरों ने अपनी ये तमाम संवैधानिक जिम्मेदारी नितांत गाँधीवादी तरीकों से ही की।

अर्थात न तो वे जरा भी हिंसक हुए, न उन्होंने जरा भी मान्य-मर्यादाओं का उल्लंघन ही किया और न ही उनका आचरण अवमानना अथवा अवहेलना करने वाला रहा। मंत्री विरुद्ध ड्राइवरों की ये समूची कार्रवाई नीति, नीयत और नियति के संवैधानिक पालन में ही की गई।

इन्होंने अंतत: बता ही दिया कि अगर लोक जीवन के पाँच बरस का जीवनकाल 'गिरगिटिया नेताजी' के होते हैं तो उसमें कम से कम एक दिन जरा कम भी होता है और वह एक दिन उस 'जनताजी' का होता है जिसे जीवन में कभी भी अपने राजनीतिक संरक्षक माँ-बाप का पता नहीं मिलता है। किसी एक दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाए तो नियम बनाने वालों से ही नियम का पालन करवाने की धृष्टता करवाने वाले दुष्ट हैं, पापी हैं, नमकहराम हैं।

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लोकतंत्र में सरकार ही मंत्री है और मंत्री ही सरकार है। उक्त अवधारणा अनुसार उक्त प्रकरण शायद यही कहता है कि सरकार के दौरे में बाधा डाली गई है। इस आरोप के अंतर्गत ड्राइवरों को सजा दी जाना चाहिए। बशर्ते कि दी जाने वाली सजा, सम्मानजनक हो, न्यायसंगत हो और कानून सम्मत भी? यदि ऐसा किया जा सकता हो तो मंत्रीगण और मंत्रीगणों की सरकार, पहले अपनी-अपनी टोपी उतारकर अपना-अपना गंजत्व टटोलें।

गंजत्व टटोलने के साथ उन मंत्रियों को भी टटोलें जिन्होंने अभी तक अपने-अपने स्वल्पाहार कूपन क्यों नहीं लौटाए हैं? शर्तों के मुताबिक अगर गोश्त काट लेने की इजाजत ली जा सकती है तो खून का एक कतरा तक टपका देने की इजाजत नहीं दी जा सकती है।

गाल फुलाए बगैर हँसना मना है। पाँव बढ़ेंगे, तो हाथ भी उठेंगे। ऐसा सोच पाना संभव नहीं हो सकता है ‍कि लोक रोता रहे, लोकतंत्र सोता रहे और 'लोकनेता' अय्याशी में डूबा रहे?

ड्राइवरों की कर्मनिष्ठा ने रामदयाल अहिरवार और गंगाराम पटेल की ही 'लोकनिष्ठा' को नहीं जगाया है बल्कि 'आचार संहिता का अचार' खाते-खिलाते हुए हम सभी के लिए एक ऐसा सबक भी लिख दिया है ‍कि काश ऐसे कारनामे हर दिन हों, हमारा तमाम 'तंत्र' सिर्फ 'आचार संहिता का अचार' खाकर ही कानून-कायदों से नहीं चले, बल्कि कानून कायदों के अचार का हर दिन सम्मानपूर्वक पालन करे।

यदि हमारे मुख्य निर्वाचन आयुक्त एन.गोपालस्वामी इन ड्राइवरों को राष्ट्रपति के हाथों सम्मानित करवाने की अनुशंसा करेंगे तो जाहिर है कि 'आचार संहिता का अचार' कुछ और अधिक सम्मानित स्वाद देने वाला बन जाएगा। आमीन और राम-राम रामदयाल। राम-राम गंगाराम।

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