यह ऐसों की ही करतूत है कि हिंदुस्तान, एक हल्ला प्रधान देश है। यह कोई कम उपलब्धि है क्या कि अपराधियों से साँठ-गाँठ के बावजूद पुलिस कानून व्यवस्था कायम रखने में जी-जान से जुटी है। उसने क्या-क्या त्याग नहीं किया है। उसके दिल की जगह पत्थर है। उसके कान सब सुनते हैं, जनता की चीख-चिल्लाहट के अलावा। अब सिर्फ उसके हाथ और जुबान चलते हैं। हाथ बड़े की सलामी और छोटे की पिटाई के लिए। जुबान ऊपर वाले की खुशामद और नीचे वाले की माँ-बहन से रिश्ता जोड़ने को। कहने को सब भारतीय नागरिक हैं। कुर्सी-अधिकार वाले बड़े और दूसरे उनसे कमतर हैं। शक्ल सूरत का जुदा होना तो, खैर चलता है। कोई साँवला है, कोई काला। किसी की आँख भैंगी है, किसी की सीधी। किसी की नाक पकौड़ी-सी है किसी की लंबी। यह ऊपरवाले के बनाए फर्क हैं। इसके अलावा मानवजनित अंतर है। कुछ अगड़े हैं, कुछ पिछड़े। कुछ डिग्री पाकर बेकार हैं, कुछ निरक्षर मालदार। कुछ पुलिसिया हैं, कुछ आदमी।
सच यह है कि सफलता के सब सगे हैं। टी-ट्वेंटी में क्या हारे, छिद्रान्वेषी अब क्रिकेट टीम के पीछे पड़े हैं। भाजपा सिद्धांत-प्रिय है। यह उसकी पराजय से जग जाहिर हो रहा है। दूसरे फेंकें तो फेंकें, अब तो अपने ही पत्थर फेंक रहे हैं। दिग्गज दल बचाए कि अपना सिर।
इंसान असफल हुआ नहीं कि टके सेर भाजी, टके सेर खाजा हो जाता है। जानवरों से आदमी इसीलिए बेहतर है। कामयाबी की कसौटी पर फर्क सिर्फ इंसान ही करता है।