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हिन्दी अधिकारी की प्रतीक्षा में हिन्दी

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ज्ञान चतुर्वेदी
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हिन्दी को आँकड़ों में बदलकर उनसे फाइल, प्रजेंटेशन या पोस्टर बनाता है वह। हिन्दी की किस्मत को फाइल करके अलमारी में धर दिया है उसने। हिन्दी पखवाड़े, हिन्दी सप्ताह या हिन्दी माह जैसे मौकों पर हिन्दी अधिकारी की सक्रियता दर्शनीय होती है। इन दिनों में ही ये फाइलें और ये आँकड़े काम आते हैं।

वह हिन्दी अधिकारी है।

अधिकारी बनते ही आदमी बॉसनुमा चीज बन जाता है। सो वह स्वयं को हिन्दी का बॉस मानता है। उसके दफ्तर में हिन्दी उसकी ताबेदार है।

हिन्दी की कहाँ, कैसी, क्या ड्यूटी लगाई जाए, यह तय करते जीवन बीत गया उसका। हिन्दी के साथ कैसा, क्या सुलूक किया जाएगा, इसके पूरे अधिकार उसके पास हैं। वही हिन्दी की गति और दुर्गति तय करता है।

हिन्दी को बढ़ाने के उसके अपने आदिम और ठेठ देशी तरीके हैं। उसे विश्वास है कि आँकड़ों की सूखी, जली रोटियों के टिक्कड़ यदि हिन्दी के गले में नियमित उतारने रहो, तो हिन्दी पुष्ट होगी।

हिन्दी का गला छिल गया, पर यह शख्स आँकड़ों के टिक्कड़ सेंके जा रहा है। उसके कने हिन्दी का मतलब आँकड़ों की बाजीगरी मात्र है- इतने पत्र, इतने स्लोगन, प्रतियोगिताएँ, इतनी निबंध प्रतियोगिताएँ ... आँकड़े ही आँकड़े। हिन्दी को आँकड़ों में बदलकर उनसे फाइल, प्रजेंटेशन या पोस्टर बनाता है वह।

हिन्दी की किस्मत को फाइल करके अलमारी में धर दिया है उसने। हिन्दी पखवाड़े, हिन्दी सप्ताह या हिन्दी माह जैसे मौकों पर हिन्दी अधिकारी की सक्रियता दर्शनीय होती है। इन दिनों में ही ये फाइलें और ये आँकड़े काम आते हैं। ...ये देखें सर। ...पर्टीकुलरली लुक एट इट। ...यस सर।

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मुख्य अतिथि, अपने अफसरों, निरीक्षण करने आई टीम- सबको वाह-वाह ही सूझती है। तभी मौका देखकर वह उनसे बढ़िया-सी सम्मति लिखकर सम्मति को उस फाइल में लगा लेता है जिसमें केवल प्रशंसाएँ दर्ज हैं और जो उसके प्रमोशन में काम आएँगी। हिन्दी की इससे ज्यादा अहमियत या उपयोग अधिकारी को नहीं पता। न ही पता करने की परवाह भी।

ऐसे ही एक हिन्दी अधिकारी की कहानी है यह। वह दफ्तर के अपने कमरे में बैठा आँकड़ों से खेल रहा था। वह अकेले बैठा हुआ भी हिन्दी के आँकड़ों के गोले मुँह से निकालने, दोनों हाथों में एक साथ कई गोले घुमाने और मुँह से आँकड़ों की झालर निकालने की हाथ की सफाई की प्रैक्टिस कर रहा है।

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आज हिन्दी दिवस है और उसे दफ्तर के समारोह में यह खेल दिखाना है। तभी चपरासी एक चिट लाया है कि एक बाई साहब बाहर खड़ी हैं, अपना नाम हिन्दी बताती हैं और आपसे मिलना चाहती हैं। बुला दूँ क्या?

हिन्दी अधिकारी असमंजस में पड़ गया। सोचता रहा। स्वागत बड़बड़ाता रहा : 'हिन्दी?... नाम तो स्साला सुना-सुना-सा लगता है। ...क्यों भाई? कौन है ये? ...पहले कभी देखा है इन्हें तुमने? ...पूछो तो। क्या काम है। देख रहे हो। आज अपुन इतने बिसी हैं।'

चपरासी बताने लगा : 'कहती हैं कि मिलवा ही दो। ...बताती हैं कि उनने पहले भी कई बार यहाँ-वहाँ आपसे मिलने की कोशिश की है पर आप मीटिंगों, प्रतियोगिताओं आदि में इतने व्यस्त रहते हो कि मिलते ही नहीं।'

हिन्दी अधिकारी नाराज हो चला : 'यार हम क्यों मिलते फिरेंगे हर ऐरे-गैरे से?'

'पर वे तो कहती हैं कि पुरानी जानने वाली हैं आपकी। ...यहाँ तक कहती थीं कि नौकरी भी उनने ही दिलवाई आपको। कह रही थीं कि हमीं से नौकरी है और हमीं को नहीं मिलता?' : चपरासी ने कहा।

हिन्दी अधिकारी गुस्सा भी हुआ और परेशान भी दिखा। नौकरी तो कौशिकजी की सिफारिश पर मिली थी? ये कौन है? जो हो। हिन्दी-फिन्दी। हम आज तो खैर मिल ही नहीं सकते इससे। आज तो हिन्दी अधिकारी को मरने की फुर्सत नहीं है भाई। मुख्य अतिथि पधारने वाले हैं। उन्हें ले जाकर जीएम साब के कमरे में। फिर हिन्दी डे के सेलीब्रेशन में। स्लोगन और पोस्टर प्रतियोगिताओं की प्राइजें बँटनी हैं। फाल्तू थोड़ेई बैठे हैं कि चिट भेज दी और मिल लिए।

'कह देना कि कल-वल आकर देख लें। अभी पॉसीबुल नहीं है,' कहकर वह अपने कमरे से तेजी से लपड़-थपड़ निकला तो हिन्दी सामने ही रास्ता-सा रोके मिल गई। कहने लगी कि मैं कब से आपके दफ्तर में प्रवेश की कोशिश कर रही हूँ। मुझे अब तो लगने लगा है कि ऐसे ऑफिशियल तरीके से तो आप मुझे घुसने ही नहीं देंगे। मैं चिट, मर्जी और फार्म भेज-भेजकर थक चुकी।

हिन्दी अधिकारी को बुरा तो लगा। कोई यूँ किसी ऑफिसर से बात करे और वह चुप रह जाए? पर हिन्दी के तेवर देखकर वह उतना तथा उस तरह से गुस्सा नहीं हो पाया, जैसा एक अधिकारी को शोभा देता है। वैसे भी हिन्दी अधिकारी को इस बात का हमेशा ही मलाल रहता है कि अभी भी उसमें वो वाला अधिकारीपना आ नहीं पाया है, जैसा दूसरे अधिकारियों में होता है।

'मैं तनिक जल्दी में था। ...यू नो, आज हिन्दी डे है। ...आप बाद में आ जाएँ।' ...कहकर वह बगल से निकलने लगा तो हिन्दी ने उसका हाथ पकड़ लिया।

हिन्दी बोली : 'मैं पिछले पचास सालों से तेरे से मिलने की कोशिश कर रही हूँ। तू बस कल आना, कल आना- यही करता रहेगा कि कभी मुझसे मिलेगा भी?'

हिन्दी अधिकारी ने घबराकर अपना हाथ हिन्दी के हाथ से छुड़ाया। घबराकर ही आसपास देखा भी कि कहीं किसी ने उसे हिन्दी का हाथ पकड़े तो नहीं देख लिया वर्ना फालतू ही बदनामी हो।

  वैसे भी हिन्दी अधिकारी को इस बात का हमेशा ही मलाल रहता है कि अभी भी उसमें वो वाला अधिकारीपना आ नहीं पाया है, जैसा दूसरे अधिकारियों में होता है...       
फिर हिन्दी अधिकारी जाते-जाते हिन्दी से कहता गया कि अभी तो हिन्दी पखवाड़े के आयोजन में ऐसा लगा हूँ कि हिन्दी क्या, अपने बाप के लिए भी मेरे पास फुर्सत नहीं है। ...फिर आज तो जीएम साहब स्वयं रहने वाले हैं प्रोग्राम में। ...आप बाद में कभी आइए।

हिन्दी अधिकारी भागता हुआ निकल गया। उसके पास हिन्दी के लिए फुर्सत कहाँ?

हिन्दी अधिकारी के कमरे के सामने दफ्तर में हिन्दी खड़ी रह गई है। वह वैसे भी वर्षों से उसके दफ्तर में यूँ ही खड़ी है।

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