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लोग घर से मरने के लिए ही निकलते हैं...

हमें फॉलो करें लोग घर से मरने के लिए ही निकलते हैं...
- रोशन जोशी


 
कल शाम को चार बजे जब मैं ठाणे स्टेशन से ऑटो रिक्शा में बैठकर माझीवाड़ा जा रहा था। वो दुबला-पतला बूढ़ा ड्राइवर बहुत ही धीरे-धीरे ऑटो चला रहा था। 
 
मैंने कहा 'यार थोड़ा जल्दी करो, कितना धीरे चला रहे हो?' 
 
उसने जवाब दिया- 'लोग घर से मरने के लिए ही निकलते हैं, हमारी जवाबदारी है बाबूजी उनको बचाने की।'
 
'क्यों? ऐसा क्यों बोल रहे हो?' 
 
'देखो बाबूजी वो लड़की हेड फोन लगा कर गाने सुनते हुए चौराहा पार कर रही है और मोबाइल में भी देख रही है।' फेसबुक या व्हाट्सएप्प पर स्टेटस देख रही होगी।'
 
'वो देखो, वो आदमी एक हाथ से बाइक चलाकर दूसरे हाथ मोबाइल से जोर-जोर से बात कर रहा है।'
 
'यार यहां मुंबई और सबर्ब में लोगों के पास टाइम की कमी है, लाइफ फास्ट है, लोग एक साथ दो-दो, तीन-तीन काम करना चाहते हैं।'
 
'अरे नहीं बाबूजी, मुंबई में तो हमेशा ही भीड़-भाड़ थी और हमेशा से ही लोगों के पास टाइम की कमी थीं। पर आज ये हाल सिर्फ मुंबई का ही नहीं है। आप कहीं भी चले जाओ- पुणे, नासिक, धूलिया, वाराणसी, लखनऊ, कानपुर, जौनपुर कहीं भी, मैं तो कहूंगा आप छोटे से छोटे गांव में भी चले जाओ तो देखना, जिसको देखो वो अपने मोबाइल में कुछ न कुछ ढूंढता रहता है। 
 
मेरे खुद के घर में यही हालत है, बड़ा बेटा काम से आकर देर रात तक जाने क्या मोबाइल में करता रहता है। बिटिया कॉलेज से आकर खाना खाते टाइम भी व्हाट्सएप्प फेसबुक ही करती रहती है।'
 
(मैं भी उस वक्त फेसबुक पोस्ट 'यादों के झरोखे से' पर आए लाइक्स और कमेंट देख रहा था, अचानक कुछ सोच कर मैंने मोबाइल जेब के हवाले किया और ऑटो वाले की बातें गौर से सुनने लगा। वो एक सुर में बड़बड़ाए जा रहा था।)
 
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'घर-घर शहर-शहर की यही कहानी है बाबूजी, क्या करें कुछ समझ में नहीं आता? अभी कोई लड़की आकर मेरे ऑटो से ठुक जाएगी, तो लोग मुझे आकर मारेंगे कि देखकर नहीं चलाता मैं।'
 
'हां वो तो है।'
 
'एक बरस में मुंबई की लोकल ट्रेन में लगभग चार हजार लोग एक्सीडेंट से मर जाते है। लोग ट्रेन में चढ़ते-उतरते टाइम भी मोबाइल का उपयोग करते हैं। गाना सुनते हैं। यह मरने के ही जतन नहीं है तो फिर और क्या है? पहले लोकल ट्रेन में लोग आपस में बात करते थे। भजन गाते थे।'
 
'भजन मंडली तो अब भी है।'
 
'बहुत कम हो गई है, पहले हर ट्रेन में एक डिब्बा तो भजन गाने वालों का ही होता था।'
 
'अच्छा। हम्म।'
 
'अब जिसको देखो वो या तो हेडफोन लगाकर गाने सुन रहा है या गेम खेल रहा है। क्या बोलते हैं उसको?'
 
' कैंडी क्रश सागा'
 
'जिसको देखो वो बस फेसबुक, व्हाट्सएप्प और ट्विटर भी..... और कुछ काम ही नहीं है जैसे लोगों को। रेलवे का कल रात का हादसा न्यूज में देखा ही होगा। हवाई दुर्घटना भी कितनी होती जा रही है? लोग पास बैठे आदमी से बातें नहीं करते। सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर बैठे लोगों से चैटिंग कर लेते हैं। मैं यह नहीं कहता कि ये गलत है। पर कुछ तो लिमिट हो बाबूजी। हर चीज की कोई लिमिट होती है। गलत कह रहा हूं क्या मैं?'
 
(इतने में माझीवाड़ा आ गया। मन तो हुआ मेरा कि उससे कहूं, ड्राइवर ज्यादा बातें करें तो उससे भी एक्सीडेंट होने का खतरा रहता है, किन्तु कुछ सोच कर चुप हो गया।)
 
रात को घर आकर अपने मोबाइल के व्हाट्सएप्प ग्रुप गिनती किए तो देखा कि मैं भी ग्यारह ग्रुप का मेंबर हूं, जिसमें से पांच का तो एडमिन भी हूं। तीन ग्रुप तो लगभग पचास के आसपास मेंबर वाले हैं। मैं सारे फॉरर्वर्डेड मैसेज नहीं देख-पढ़ पाता, सभी फोटो नहीं देख पाता, वीडियो तो तुरंत डिलीट कर देता हूं।
 
हां यथासंभव टेक्स्ट मैसेज के जवाब देने की कोशिश करता हूं, किंतु उसमें भी मेरा टाइम बहुत ज्यादा खर्च हो जाता है। यही सोचते-सोचते नींद आ गई। मोबाइल को म्यूट करना भूल गया। थोड़ी ही देर में ट्रिंग-ट्रिंग से नींद खुल गई, उठा तो देखा कि 345 न्यू मैसेजेस मेरा इंतजार कर रहे हैं। बिना देखे फटाफट सारे ग्रुप के सभी मेसेज डिलीट किए। सिर्फ अपने कॉलेज ग्रुप के मेंबर्स से चैटिंग करना शुरू कर दिया। कैसे 12:45 से भी ज्यादा हो गए, पता ही नहीं चला? मैं आम तौर पर बहुत जल्दी सो जाता हूं और सुबह जल्दी उठने की जन्मजात बीमारी का खानदानी मरीज हूं, किंतु आजकल अक्सर यह फेसबुक और व्हाट्सएप्प के चक्कर में नींद की मैया ता... ता... थैया होने लगी है।
 
एक वक्त याद आ गया, वो दौर याद आ गया, जब इंटरनेट पर 1998-99 में अपना पहला ई-मेल आईडी याहू डॉट. कॉम. पर बना कर साइबर कैफे में रोजाना एक-दो घंटे का वक्त गुजारा करता था। याहू मैसेंजर तो जैसे मेरी जान ही नहीं आन-बान और शान था। धीरे-धीरे वो छूटता गया। अब सिर्फ ऑफिशियल काम के लिए ही ई-मेल का उपयोग करता हूं। बाकी सारी किस्म-किस्म की कारगुजारियों के लिए फेसबुक और व्हाट्सएप्प है ही। 
 
आज अपने बच्चों को स्कूल बस तक छोड़ने गया तो आते वक्त रास्ते में देखा कि एक दूसरे स्कूल बस का इंतजार कर रहे एक बच्चे की अम्मा मोबाइल में व्यस्त थी और पास में उसका बच्चा एक कुत्ते की सवारी कर रहा था। देखकर मैं तो हक्का-बक्का रह गया, उनको बताया तो बुरी तरह से डांटने लगी अपने 7-8 साल के बच्चे को। मैंने कहा- आप बस का इंतजार करते वक्त अपने बच्चे से रोजाना बातें किया करो, वर्ना कल जब आप इससे बातें करना चाहोगे तब यह आपको व्यस्त मिलेगा।
 
अब ऐसा लगने लगा है कि मेरे लिए भी इन फेसबुक और व्हाट्सएप्प से थोड़ा दूर जाने का वक्त आ गया है। पूरी तरह से दूर होना शायद एकदम से संभव ना भी हो सका तो इसके सीमित उपयोग किए जाने की दिशा में अपना पहला कदम तो आज बढ़ा ही दूंगा। आज से खुद को सुधारने का प्रयत्न करना चाहता हूं। मेरी सोच को सही या गलत घोषित करने की बात कहने का फैसला लेने से पहले मैं खुद से तीन बार कह चुका हूं - 'अति सर्वत्र वर्जयेत'।

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