मैंने बहुत सोचा कि आम आदमी की सबसे छोटी और एकदम सटीक परिभाषा क्या होनी चाहिए। एक मन हुआ कि लिख दूँ, आम आदमी वह आदमी है, जो आम नहीं खरीद सकता। मगर देखा। नहीं, यह आम आदमी रात में दुकान उठते तक फुटपाथ से छँटे हुए आम के ढेर में से थोड़े-बहुत आम खरीद डालता है और नहीं-नहीं करते रोटी-अमरस खा ही लेता है। ऐसा आदमी जो विकराल भ्रष्टाचार के होते और तिस पर भ्रष्टाचार की जायज औलाद महँगाई बिटिया के होते आम खरीदकर खा ले, वह आम आदमी नहीं हो सकता। भ्रष्टाचार और महँगाई की शान यह है कि आम आदमी सड़ा आम भी न खरीद सके! तो क्या उसे 'आलू-प्याज' आदमी कह दूँ? सन् 60-70 तक तो उसे ऐसा कहा जा सकता था। पर इधर आलू-प्याज कौन सस्ता है! एक सरकार तो प्याज के कारण गिर गई! नहीं, नहीं, आम आदमी को 'आलू-प्याज' आदमी कहना उसके माथे लक्जरी मढ़ना है। आम आदमी तो वही होसकता है, जो आलू-प्याज की कल्पना करके रोटी-नमक खा ले। फिर भी कॉमनमैन तो है। फलसफे के 'बट, परंतु, किंतु, लेकिन' में कट-पिटकर भी वह बाकायदा बाहर हाँफता खड़ा है। तो यह कॉमनमैन कौन है? उनके आपस में कॉमन क्या है? बहुत सोचा तो नतीजा यह निकला कि जिनके बीच में अभाव और आसमान कॉमन है, वही कॉमनमैन है! उससे आप अभाव, असमान और वोट देने का सौभाग्य नहीं छीन सकते। इस मामले में वह राम की दया से भरा-पूरा है! कुछ लोग कहते हैं कि गेहूँ बँटता है, मगर नहीं, गेहूँ का अभाव भी बँटता है। इधर बिल्डिंग कांट्रेक्टर छत्तीसगढ़ी मजदूरों का मेहनताना हड़प ले और वे रोते-पीटते पसिंजर गाड़ी में बैठ जाएँ, तो इटारसी में रोटी का अभाव मिल-बाँटकर खा लेते हैं। खाली आसमान देखना और हवा में मुँह चलाना... यह भी भोजन करना है कम से कम आसमान एक ऐसी विराट रोटी है कि लाखों गरीब भाई-बेन उसे तोड़-तोड़कर आराम से खा सकते हैं। अभाव खाने के बाद वोट पर ठप्पा मारने की ताकत बढ़ जाती है। खैर, माथापच्ची करके मैंने आम आदमी की संक्षिप्त और सटीक परिभाषा बना ही ली। आम आदमी यानी वह खास आदमी, जिसके लिए खास कुछ न होता हो, मगर जो वोट जरूर देता हो! वोट एक फालतू कागज है, जिससे सरकार बनती है, जनसेवा के धंधे में पूँजी लगाकर अंधाधुँध मुनाफा कमाने वाला नंबर दो का सेठ मुटियाता है और उसके लगुने-भगुने फलते-फूलते हैं। इसके आगे वोटदाता बहुसंख्यक के लिए कागज की कोई कीमत नहीं।
कॉमनमैन को लेकर यह तमाम बात मुझे एक छोटी-सी घटना से सूझी। असल में मैं हवाई जहाज को देखकर एक कविता लिखने जा रहा था कि एक पसिंजर गाड़ी दिख गई। गँवई-गाँव की पसिंजर गाड़ी । कुल छः डब्बे। प्लेटफार्म पर मजदूरों, चैतियों और गरीब देहातियों की भारी भीड़। धूप प्यास से बिलखते मैले-कुचैले बच्चे। मजदूरी के अन्न की पुरानी, थिगड़े लगी, पोटलियाँ! डब्बों में पहले से ठँसी हुई जिंदा लाशें। दरवज्जों पर लकड़ी के लट््ठों से अड़े हुए लोग। चींटी भी निकल जाए, तो भारत को ओलिंपिक में गोल्ड मेडल।
गाँव का मामला। देहाती यात्रियों में यह आदिम भय कि गाड़ी थुबी नहीं कि चल दी। कानों में सीटी बगैर बजे ही सुनाई पड़ रही है। स्थिर खड़ी रेल चल चुकने का भ्रम दे रही है। ऐसे में हकबकाए, बदहवास लोग, भेड़-बकरी की तरह, एक ही डब्बे में घुसने का भगीरथ प्रयत्न कर रहे हैं। उन्हें घबराहट में सूझ नहीं पड़ता कि गाड़ी लंबी है और दूसरे डिब्बों की तरफ भागा जा सकता है। सबके सब अंधे हो गए हैं। सामने जो दरवाजा दिख रहा है, उसी के छिद्र में अर्जुन के तीर-सा घुस जाना चाहते हैं।
मगर घुसें भी तो घुसें कहाँ? दरवाजे पर मांस और हड्डियों की मजबूत दीवार छेंके खड़ी है। गोश्त को भेदकर कैसे घुस जाएँ? फिर भी कुछ लटक गए हैं। कुछ शूरवीर, जिनके पास मरने के सिवा कुछ नहीं बचा है, कपलिंग पर जान बिराजे हैं। एक बूढ़ा, जिसका पोपला मुँह चिड़िया की तरह खुला है और जो चश्मे से धरती की तरफ कम आसमान की तरफ ज्यादा देखता है, एक ही डब्बे के सामने इधर-उधर भाग रहा है। बस चले तो खिड़की से चढ़ जाए, पर प्लेटफॉर्म से खिड़की बहुत ऊँची है।
उसकी डोकरी चिचियाए जा रही है। पर क्या बोल रही है, भीड़ के दुर्व्यवस्थित शोर में सुनाई नहीं पड़ता। वह डर रही है कि गाड़ी कहीं चल न दे और डोकरा चकों में तितली जैसा पिचला न हो जाए। वह शायद कह रही है- 'छोड़ दो, दा! छोड़ दो! अपन बाद वाली से जावाँगा'। बाद वाली बारह घंटे बाद आएगी। बूढ़ा पहले ही तीन घंटा लेट गाड़ी का इंतजार कर चुका है। वह चाहता है कि हलकानी खत्म हो जाए। वह वहीं खड़ा-खड़ा फुदक रहा है, जबकि गाँव के तीन-चार लौंडे, बूढ़े को देखकर ठिलठिला रहे हैं।
तभी इंजन ने सीटी दी और गाड़ी धरमराकर लुढ़क चली। कुछ चढ़ गए। कुछ प्लेटफॉर्म पर रह गए और रेलगाड़ी, सृष्टि की तरह निर्विकार, समर्थों को अपने अंक में लेती और असमर्थों को उनके हाल पर छोड़ती, चल चली गई। ऐसा रोज होता है। सभी छोटे स्टेशनों परहोता है। ये छोटे स्टेशन छोटे लोग, और मेल एक्सप्रेस के मुकाबले ये छोटी पसिंजर गाड़ियाँ... हमारे प्रजातंत्र के आँसू हैं, जो मिनिस्टरों के गलीचों पर गिरते हैं।
ये छोटे लोग, जिनसे प्रजातंत्र चलता है, और जिनसे विधानसभाएँ और पार्लियामेंट जिंदा हैं, इसी तरह रोज मरते-गड़ते... भुगतते रहते हैं। जंक्शनों पर इन्हें रेलवे पुलिस वाले पीटते रहते हैं। चलती गाड़ी में से इनके कमाए अनाज की पोटली फेंक देते हैं। रेलमंत्री, डीआरएम और क्षेत्रीय नेता इन अभागे दोपायों की दुर्गत नहीं देख पाते, क्योंकि वे सुपर के एसी में उड़ते हुएनिकल जाते हैं और बंगले के गलीचे पर पाँव रखते हैं।
उन्होंने आराम से मान लिया है कि हिन्दुस्तान में गाँव हैं ही नहीं, क्योंकि उनकी 'लुगाई' कभी गाँव के प्लेटफार्म पर नहीं गिरी और न उनका कॉन्वेंट गामी 'गोबर्या' भीड़ में चिपला हुआ! जानते भी हों तो 'अजी बाश्शाहो! मैणे किं करणा! हम तो प्लेटफार्म पर नहीं गिरे।' हवा बीच में से दो वर्गों को काट देती है। अब मरे-गड़े देहाती। साहब बहादुर, राजनीति बहादुर अपने वीआईपी दड़बे में मजे में हैं। अनुभवहीन अंधा होता है और फिर बहरा भी हो जाता है।
ये छोटी गाड़ियाँ, ये छोटे लोग पटरी के बाहर खड़े हैं! पटरी पर बस प्रजातंत्र एक्सप्रेस चला जा रहा है- बड़े लोगों का प्रजातंत्र, जो आराम से भूले बैठे हैं कि प्रजातंत्र उन्हीं लोगों से चलता है, जो प्लेटफार्म पर खड़े रह गए और जिनके लिए अगली गाड़ी बारह घंटे बाद आएगी। इन बारह घंटों में क्या-क्या हो जाता है? सैकड़ों बोतल रम तलछट गले में उतर जाती है। पर यह देहाती गाँव के प्लेटफार्म पर भूखा-प्यासा, झींकता खड़ा है। वह प्लेटफार्म का पत्थर है। यह पत्थर अब बटुए से सरोता-सुपारी निकालता है और सुपारी कतरकर खाने लगता है,जैसे आगामी बारह घंटों की ऊब को कुतर-कुतरकर खा रहा हो। माथे पर तगड़ा घाम! जर्जर प्रतीक्षालय में ठस्समठस! दिल्ली में पार्लियामेंट चल रहा है।
सवाल है कि इन करमजलों की दुर्दशा-दुर्गति का अंत कैसे हो? इलाज एक लाइन में कुल इतना है कि डीआरएम भोपाल, खंडवा, इटारसी के बीच एक तीसरी पसिंजर गाड़ी चला दे। चौबीस घंटों में अप और डाउन लाइनों पर मात्र दो सर्वहारा पसिंजर गाड़ियाँ चलें, यह देहाती आबादी के साथ सरासर अन्याय है। ये लोग भी इंसान हैं, इनके भी दुःख-सुख हैं। और इन्हें भी जाड़ा-घाम लगता है।
यह अलग बात है कि ये 'मुक्के जनावर' हैं। इन्हें मंच तानकर जहरीला भाषण देते नहीं आता। पटरियों पर बैठकर रेल ट्रैफिक रोकते नहीं आता। इन गँवारों का कोई यूनियन नहीं हैं। ये मुंबई के शिवसैनिक भी नहीं हैं कि रेलवे-बोर्ड और डीआरएम का गुस्सा स्टेशन मास्टरको पीटकर निकाल डालें या स्टेशन बिल्डिंग जलाकर बता दें कि हमें एक अदद अतिरिक्त 'होरी' पैसिंजर की जरूरत है।
आखिर इन दोपायों का माई-बाप कौन है? किस लोक के प्राणी हैं ये, कि इन्हें जमीन का इंसान नहीं माना जाता? क्या देहाती और गँवार होना इस देश में अपराध है कि जब तक ये गूँगे अर्द्घमानव (होमोसेपियंस) उपद्रव, तोड़फोड़ न करें, तब तक रेल प्रशासन को समझ में न
आए कि हम पशुओं से नहीं, आदमियों से डील कर करे हैं? और उनकी काया को भी कष्ट होता है! इनके बच्चे-कच्चे और बीवी-लुगाई है, प्रभुजी! वे भी गलती से इंसान हैं!
आप लोग भी जरा टेकी लगा दें और डीआरएम भोपाल को झिंझोड़कर जगा दें, तो क्षेत्र के इन वोट दाता 'मवेशियों' का भला हो जाए और खंडवा-इटारसी सेक्शन में तीसरी 'ढचर स्पेशल' यानी देहाती पसिंजर चलने लगे। सच्ची कहूँ, अभी बड़ी आफत है, जबकि आ, फ और त... मात्र तीन अक्षर हैं! लिखे हुए शब्द से दुःख बहुत बड़ा होता है, मेरे आकाओ! स्पेलिंग के भीतर एक आदमी कुसमुसाता है!