हमारे देश को मूर्खता की ओरिजनल कॉपी इसलिए कहा जा रहा है कि मूर्खता के मूल में कालिदास हैं। कवि तो वे बाद में हुए, पहले वे शुद्ध मूर्ख थे, क्योंकि पेड़ की जिस डाल पर बैठे हुए थे, उसी को कुल्हाड़ी से काट रहे थे। मूर्खता का इतना "इनोसेंट" और "ओरिजनल" उदाहरण दुनिया के किसी अन्य देश के इतिहास में है? हो गया न सिद्ध कि मूर्खता में हम ओरिजनल हैं और अन्य देश जेरोक्स कॉपी। इसलिए मूर्ख-दिवस मनाने का श्रेय जब इतिहासकार अन्य देश को देना चाहते हैं तो उनकी नीयत पर संदेह होना स्वाभाविक है। कालिदास ने डाल काटने की ओरिजनलिटी से मूर्खता के क्षेत्र में दुनिया के सभी देशों की दादागिरी समाप्त कर दी है। मूर्खता की इस प्यारी और न्यारी स्थिति के कारण ही मूर्ख-दिवस के आरंभ का श्रेय हमें ही मिलना चाहिए। अन्य देशों के पास मूर्खता की "क्वांटिटी" है किंतु हमारे पास "क्वालिटी" है। दरअसल, दुनिया का सबसे प्रथम मूर्ख-दिवस उस तिथि को रहा होगा, जिस दिन कालिदास काका ('अंकल' काली) ने वह डाल काटी थी जिस पर वे बैठे थे। वह तिथि संभव है फर्स्ट अप्रैल ही रही हो। अगर फर्स्ट अप्रैल न भी रही हो तो भी इस फर्स्ट एप्रिल पर हमारा ही अधिकार है। दरअसल, कालिदास के कारण मूर्खता पर हमारा "कॉपीराइट" होना चाहिए।
एक वाक्य में कहें तो मूर्खता हमारा मौलिक अधिकार है। बुद्धिमत्ता अन्य देशों की "ब्रेड-बटर" है जबकि मूर्खता कालिदास की "दाल-बाटी" है। गत कई वर्षों से उज्जैन में होने वाला टेपा-सम्मेलन मूर्ख-सम्मेलन ही तो है। टेपा-सम्मेलन के आयोजकों ने इसको रियलिटी शो बना दिया है। आयोजकगण टेपा-सम्मेलन की "आन-बान-शान" और मूर्खों की "पहचान" को कायम रखने के लिए इतने "लायल" हैं कि हर टेपा "रॉयल" और हर दर्शक "कायल" हो रहा है। इससे यह संदेश तो जा ही रहा है कि "मालवा के मूर्खों! एक हो जाओ।