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मुहूर्त की शादी यानी आबादी...

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- बिस्मिल्लाह

Devendra SharmaND
शादी को आप थोक-व्यवसाय की श्रेणी में रख सकते हैं, क्योंकि शादियों के मौसम में ही शादियाँ होती हैं। जानकारों का मानना है कि दुनिया में कुछ भी, पैसा फेंककर खरीदा जा सकता है, लेकिन शादियों का मुहूर्त नहीं।

प्रेम-विवाह में भले ही हजार रुपए का नोट अंटी करने के बाद पंडित पूछ ले कि बोलो जजमान, कब का शुभ मुहूर्त निकाल दूँ, मगर बगैर प्रेम के जो विवाह होते हैं, उनमें ऐसी धाँधली नहीं चलती है। तय है कि दस दिन शादी का मुहूर्त है, फिर छः महीने नहीं है तो सारे के सारे कुँवारे-परिवार भि़ड़ जाते हैं दस दिन के उपयोग में।

शादी का अतीत बताता है कि ऐसी घमासान शादियाँ भी हुई हैं कि शहर के टेंट हाउस से चम्मच भी नहीं मिल सकी। बैंडवाले भी आधे घंटे से ज्यादा बजाने को तैयार नहीं और घो़ड़ी वाला तो इस पर भी तैयार नहीं था कि दाईं तरफ से च़ढ़कर दूल्हा बाँईं तरफ उतर जाएगा। घो़ड़ी की रस्म भी पूरी हो जाएगी। आम दिनों में जो चीजें इफरात से कम दाम में मिल जाती हैं, मुहूर्त में दाम की तो पूछिए मत, मिल जाए तो ही पुण्य-प्रताप!
  शादी को आप थोक-व्यवसाय की श्रेणी में रख सकते हैं, क्योंकि शादियों के मौसम में ही शादियाँ होती हैं। जानकारों का मानना है कि दुनिया में कुछ भी, पैसा फेंककर खरीदा जा सकता है, लेकिन शादियों का मुहूर्त नहीं।      


केटरर भी टरर-टरर करने लगता है कि पचास चीजें बनाने के लिए कारीगर कहाँ से लाऊँगा, उसी दिन दस शादियों का काम और ले रखा है। लिस्ट आधी कर दीजिए, वरना किसी 'महाराज' से बनवा लीजिए मजूरी देकर! सस्ता भी प़ड़ जाएगा। ल़ड़की के बगैर तो फिर भी शादी हो जाए, लेकिन केटरर के बिना तो आप शादी का सपना भी नहीं देख सकते। दूल्हा-दुल्हन से ज्यादा जोर खाने पर होता है कि लोग रहती दुनिया तक उनकी शादी के खाने की चर्चा करते रहें।

आम दिनों में तो ब़ड़े-ब़ड़े बगीचे और मैरिज हॉल खाली रहते हैं मगर शादी के दिनों में इनका किराया, शादी का आधा खर्च हो जाता है। उस पर आने के पहले खाली होने का इंतजार करो... और जाने के बाद... यूँ भी़ड़ देखते निकलो, जैसे रेल से उतरे हों और दूसरे यात्री उसी रेल में च़ढ़ने को तैयार हों।

यानी मुहूर्त में शादी तो मूल शादी से भी महान काम है। हर जगह मारा-मारी के बावजूद अगर रणबाँकुरे इतने कम समय में इतना ब़ड़ा काम करने निकल प़ड़ते हैं तो यह हिम्मत की बात है। ऐसे ही एक भूतपूर्व हिम्मती के सामने जब मैंने अपना यह पवित्र विचार रखातो वह भ़ड़क उठा ''समझते तो हो नहीं...! मुहूर्त में शादी के जितने फायदे हैं, उतने तो शादी के पहले भी नहीं होते हैं। जानते हैं भी़ड़-भक्क़ड़ में शादियाँ क्यों की जाती हैं... इसीलिए कि हम तो वे करने वाले थे, वो करने वाले थे... मगर क्या करें।

शादियाँ इतनी निकल आईं कि कुछ कर नहीं सके। आधे खर्चे में हो जाती है ऐसे मुहूर्तों में शादियाँ। और लोग भी शिकायत नहीं करते हैं कि खाना खराब था या बारात का स्वागत ठीक से नहीं हुआ। ...और सबसे ब़ड़ी बात लोग भी कम आते हैं, क्योंकि और भी शादियाँ हैं... और जो आते हैं, वे भी कम खाते हैं, क्योंकि और भी शादियाँ हैं।'' उनके यहाँ अब बीस साल कोई शादी नहीं होना है तो यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि वे सच ही कह रहे हैं। मुझे भी बेटे की शादी के लिए अगले मुहूर्त तक इंतजार करना होगा, जबकि उसका तो ये प्रेम विवाह है।

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