बात पुरानी है, अंग्रेजों के जमाने की। आत्म प्रकाश आनंद नामी वकील थे। उन्होंने और उनके बाप-दादाओं ने हमेशा अंग्रेजों का साथ दिया इसलिए विदेशी शासक उन्हें सिर आँखों पर बैठाते थे। आत्म आनंद को राय बहादुर के खिताब से नवाजा जा चुका था। निजी जीवन में वह धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। राय बहादुर कई संस्थाओं के संरक्षक और अनेक सरकारी समितियों के सदस्य थे। स्थानीय प्रशासन में उनका रौब और रुतबा और भी बढ़ गया जब एक बार वह नगरपालिका के अध्यक्ष चुने गए। अब वह शहर के बेताज बादशाह थे, हालाँकि कुछ मामलों में उन्हें ऊपर से दिशा-निर्देश लेना पड़ता था।
नगरपालिका की एक मीटिंग में राय बहादुर ने एक प्रस्ताव रखा कि शहर के कंपनी बाग में उनके पिता शंकर प्रसाद आनंद की प्रतिमा लगाई जानी चाहिए। उन्होंने समाज के प्रति अपने पिताश्री के योगदान का बखान किया जो पूरा सच नहीं था। खैर, प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हो गया। अंग्रेज कमिश्नर ने भी उस पर मुहर लगा दी।
कई महीने के बाद मूर्ति बनकर तैयार हुई। उस जमाने में, आज से करीब 75 साल पहले संगमरमर की उस भव्य मूर्ति पर हजार-बारह सौ रुपए खर्च हुए थे। आत्म आनंद रसूख काम आया और गवर्नर की पत्नी ने सैकड़ों शहरियों की मौजूदगी में प्रतिमा का अनावरण किया। मूर्ति को फूलों से लाद दिया गया। मिठाइयाँ बाँटी गईं। पुलिस बैंड ने समारोह की रौनक बढ़ा दी।
कुछ दिन बाद राय बहादुर अपने ताँगे में बैठकर कंपनी बाग गए तो उनका दिल बैठ गया। कौवे-कबूतरों ने मूर्ति को अपनी आरामगाह और बाथरूम बना लिया था। दूधिया मूर्ति पर जगह-जगह दाग लगे थे। मूर्ति को साबुन से नहलाया गया। अगले दिन आत्म आनंद ने सरकार को प्रस्ताव भेजा कि प्रतिमा की साफ-सफाई और सुरक्षा के लिए एक आदमी तैनात किया जाना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
सरकार का कहना था कि यदि इस एक मूर्ति के लिए यह व्यस्वस्था की गई तो देश में जगह-जगह लगी सभी मूर्तियों के लिए आदमी तैनात करने होंगे, जो संभव नहीं है। इस पर राय बहादुर ने अपने खर्चे से एक पहरेदार नियुक्त कर दिया जो सुबह से शाम तक पक्षियों को मूर्ति से दूर रखने का काम करता था। यह सिलसिला बरसों चला।
फिर एक दिन राय बहादुर आत्म आनंद चल बसे। वह निस्संतान थे इसलिए मूर्ति की खबर लेने वाला भी कोई नहीं रहा । मूर्ति आज भी वहीं है। फर्क बस इतना है कि कंपनी बाग अब बाग नहीं है, स्लम बन चुका है। राय बहादुर आत्म आनंद के पिताश्री की प्रतिमा हजारों झुग्गियों से घिरी खड़ी है। कौवे-कबूतर दिन भर उसे बदनुमा करते रहते हैं।
अब तो उसे पहचानना भी मुश्किल है। वैसे भी कोई नहीं जानता कि वह कौन है -शायद बुत भी नहीं, क्योंकि उसके नीचे की तरफ लगी पीतल की नाम पट्टी कब से गायब है।