शिल्पा और खंडाला : आँखों देखा हाल
जगदीश ज्वलंत
पहली बार उन्हें पता चला कि इस भारत भूमि पर खंडाला भी कोई स्थान है। जहाँ निश्चित समय सीमा में किसी भी परिस्थिति में पहुँचना अनिवार्य है। क्या? निमंत्रण? कैसी बात कर रहे हैं साहब। बड़े-बड़े तीसमारखाओं को भी नहीं मिला फिर ये किस खेत की मूली। फिर भी तुर्रा यह कि भूल गई होगी। बेचारी अकेली शिल्पा क्या-क्या करे? बहन बिग-बॉस में, पिताजी अस्वस्थ, माँ घर देखे कि बाहर। सो अपन से जो बन पड़े करेंगे सेवा, हम हैं ना? यही सोचकर एक पक्षीय अपनत्व समेटे पूछताछ में पूछते फिरे खंडाला का पता। एक बारगी विचार आया क्या जरूरत थी वहाँ से करने की। अपने ही गाँव से करवा देते। सफाई को छोड़कर सब कुछ तो है यहाँ। लेकिन जो होना था, हो चुका। मैं भी उनके साथ स्टेशन तक गया। उनकी मजाक में सचमुच गंभीरता थी। जब मैंने पूरी ताकत से उन्हें लोकल डिब्बे में जबरन घुसेड़ा उन्होंने उफ तक नहीं की।वे खंडाला से लौट आए हैं। पता लगते ही मैं उनके घर पहुँचा। हाथ में प्लास्टर चढ़ा था। दर्द से कराह रहे थे। मैंने पूछा, 'क्या पुलिस ने लाठीचार्ज किया था? उन्होंने नहीं में गर्दन हिलाई। 'फिर बोगी में मारपीट हुई?' फिर 'नहीं' में गर्दन हिली। पूछना बेकार है। शायद बिना टिकट पाकर रेलवे वालों ने कूट-काट दिया होगा। मैं उनका चेहरा देख रहा था। फिर उन्होंने ही कहना प्रारंभ किया- 'यार, क्या शादी थी, कुछ ना पूछो! सोचा था रसोई परोसेंगे या पत्तल-दोने उठाने में सहयोग करेंगे। लेकिन नासमिटों ने पास फटकने नहीं दिया। एक पेड़ पर चढ़ा। उस पर पहले से ही कई चढ़े हुए थे। ऐसा इंसानों का पेड़ पहली बार देखा। जो टहनी मुझे मिली थी उस पर से केवल घोड़ी का मुँह ही दिखलाई दे रहा था। आगे लटककर दूल्हे को देखना चाहा कि डाल टूटकर नीचे आ गिरी। अस्थिबाधित होने के कारण आरक्षण का आंशिक लाभ मुझे मिल गया। एक पुलिस वाले ने घोड़ी के पास खड़ा रहने की मुझे मौखिक अनुमति दे दी। फिर क्या था? दूल्हे की घोड़ी थी। दूल्हा उसी पर बैठेगा। कई वीआईपी उस घोड़ी को टकटकी लगाए ईर्ष्या भाव से उसे देख रहे थे। एक मैं था कि बस दो फुट दूर था। देख, उसके साथ मेरा फोटो, कहकर उन्होंने एक घोड़ी के साथ स्वयं का फोटो मोबाइल कैमरे में से निकालकर बताया। ये तो काली घोड़ी थी। टीवी में सफेद घोड़ी दिखलाई दी थी। उन्होंने सफाई दी,'एक नहीं कई घोड़ियाँ थीं। सभी सजी-धजी खड़ी थीं। कौन सजा-धजा था और कौन घोड़ा कहना कठिन था। सब कुछ पहनावे के बोझ तले इतना गड्डमड्ड हो चुका था कि मनुष्य-पशु का भेद मिट चुका था। कुछ पालतू कुत्ते भी सजी-धजी महिलाओं की गोदी में चढ़ स्वयं पर गर्वित हो रहे थे। देसी कुत्ते अपनी तेज नाक के कारण एक किलोमीटर दूर से ही व्यंजनों की गंध को ताकत से खींच रहे थे। चलो, मन समझाने को यही बहुत है। भावी पीढ़ी को शान से कहेंगे। क्या मिठाइयाँ बनी थीं उस दिन, जिसकी गंध वाह। कई किलोमीटर तक उड़ रही थी। निरर्थक कँटीले पेड़ तक गर्वित थे कि चलो जिन्हें कोई देखता तक नहीं था, आज उन पर कई चढ़े उल्लुओं से गठरी बने 'काग-चेष्टा, बको-ध्यानं' की मुद्रा में घंटों से बैठे हैं। कई काँटे उन्हें बार-बार चुभ-चुभकर शिल्पा के प्रति उनके समर्पण के स्तर को जाँच रहे थे। नीचे खड़े पुलिस वाले तने पर अनावश्यक डंडे फटकारकर उन्हें विचलित कर रहे थे। विचलन से उनका बार-बार ध्यान भंग हो रहा था। इसी विचलन से फिसलन की स्थिति बन गई और हमारे ये आशिक मियाँ धम्म से आ गिरे नीचे। लगी कम, किंतु चीखे इतना जोर से कि शायद शिल्पा सांत्वना देने चली आए। लेकिन मुए बैंड वालों को तो इनकी आह की जगह दूल्हे का सेहरा ही सुहाना लग रहा था। किसी ने कहा भी है कि- निकले मेरा जनाजा, शहनाइयाँ बजाना।'
धनई काका, मिल लो जाकर खंडाला से आए हैं... हमने कहा। 'क्या?' वे थोड़ा ऊँचा सुनते हैं, बोले- 'भैया एक तो सड़कें खराब, ऊपर से खटाला बसें, लंबा सफर, जोड़-जोड़ दरद कर रहा होगा।' हमने पास जाकर कहा- 'खटाला नहीं खंडाला-खंडाला। एक जगह है। शिल्पा आंटी की शादी में गए थे। करवा के आए हैं। नहीं जाते तो होना मुश्किल थी। मामूली चोट लगी है। सभी मिल रहे हैं। भीड़ लगी है। आप भी मिल आओ। शादी का समाचार सुनाएँगे। जाओ तो...।'लेकिन ये शिल्पा कौन है? जी चाहा सिर पीट लें। राष्ट्रीय महत्व की दो तो चीजें थीं पिछले दिनों। शिल्पा और खंडाला, जिनकी वजह से सारे राष्ट्रीय प्रसारण को रोकना पड़ा। दूसरे गर्म मुद्दे ठंडे पड़ गए। अब इन्हें कौन समझाए। आप ही समझाइए।