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निर्मला भुराड़िया
एक प्रसिद्ध संतजी (?) का बेटा भी संतगीरी में आ गया है, गोया यह कोई पुश्तैनी व्यवसाय हो ! वैसे है तो व्यवसाय ही, जिसमें अपार धन और शोहरत है। संत होने के लिए छोड़ना भी कुछ नहीं है सुख-सुविधा, आडंबर, अहंकार कुछ भी नहीं। उल्टे लोग पैर छू-छूकर अहंकार को पोषित करेंगे, तृप्त करेंगे। जिन समाजों के संतों ने विलास के साधन छोड़े, अहंकार तो उन्होंने भी नहीं छोड़े हैं। पिछले दिनों ही संतों की तू-तू, मैं-मैं हो गई थी इस बात पर कि कौन ऊँचे पाटे पर बैठा, कौन नीचे पर। एक संत ने दूसरे संत पर करोड़ों रुपए जुटाने की मंशा का आरोप लगाया। कोई संत गुस्से में समारोह छोड़ गए, तो कोई रूठ गए इस बात पर कि फलाँ विधि से मूर्ति का अभिषेक क्यों नहीं हुआ। संतों की यह लट्ठम-लट्ठा और धर्मालुओं के कर्मकांड देखकर तो ऐसा लगता है समाज में कोई समस्याही नहीं रह गई है और समय काटने के लिए बच्चों की रोटा-पानी की तरह बड़े लोग धर्म-धर्म खेल रहे हैं। उक्त आयोजनों में कर्मकांड में शामिल होने के लिए हजारों की संख्या में श्रद्धालु उपस्थित होते हैं, जो अपनी संवेदना और आँसू पत्थरों पर खर्च करते हैं। अखबारों में पंक्तियाँ होती हैं- अभिषेक देखकर हजारों की आँखें धन्य हो गईं, नम हो गईं। जनता तो जनता, नेताओं के कर्मकांडी होने का यह आलम है कि पिछले दिनों गाँधीजी की मूर्ति को भी दूध से धो दिया। खुद दूध के धुले बनने पर शायद ही किसी ने ध्यान दिया हो।
चलिए अब एक दूसरे प्रकरण की तरफ आएँ जो इससे बिलकुल ही अलग दुनिया का है, भले ही उनके बाशिंदे एक ही देश के हों। किस्सा यूँ है कि गाँव की एक स्त्री बच्चादानी निकलवाने का ऑपरेशन करवाने इंदौर आई थी। यह तय था कि किस अस्पताल में उसका युटेरस निकाला जाएगा, कौन डॉक्टर ऑपरेशन करेगा तो गाँव के डॉक्टर ने ही उसे बताकर भेजा था कि फलाँ अस्पताल में फलाँ डॉक्टर के पास ही जाना है। किस्मत से स्त्री के पति को एक पढ़ा-लिखा, संवेदनशील शहरी मिल गया। उस शहरी को दाल में कुछ काला लगा तो उसने उन ग्रामीणों को, जो ऑपरेशन के लिए काफी रकम जुटाकर आए थे, अपने एक मित्र चिकित्सक के पास भेजा। मित्र चिकित्सक ने जाँच करवाई तो पता चला युटेरस निकालने की कतई आवश्यकता नहीं थी। इन चिकित्सक महोदय ने मानवीयता बरतते हुए ईमानदारी से बता दिया कि ऑपरेशन की रिकमेंड फिजूल थी। ग्रामीणों से और बात करने पर पता चला कि यह एक केस नहीं है, गाँव का चिकित्सक, शहर के चिकित्सक से मिला हुआ है और गाँव में कई महिलाओं को बिना बात ही ऑपरेशन रिकमेंड करता है। बाईस-पच्चीस साल की युवतियों की कोख भी इस तरह निकलवाई जा चुकी है।
यह तो सिर्फ एक किस्म का ही उदाहरण है। निर्धनों, अर्द्धशिक्षितों, अशिक्षितों, ग्रामीणों में स्वास्थ्य चेतना का अभाव है। इस बारे में चेतना अभियान चलाना अन्य शहरी, शिक्षित नागरिकों के एजेंडा पर नहीं है। शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, सड़क, पानी ये सब तो कोरे शब्द रह गए हैं, जो चुनावी, राजनीतिक नारों के रूप में ही काम आते हैं। समृद्ध, संपन्नजन चाहें वे नागरिक हों या नेता धर्म की जय करने में लगे हैं। मानव धर्म की जय करने में न उनकी रुचि है, न फुर्सत।