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अजातशत्रु
सुना कि वे सस्पेंड पड़े हैं, तो मुझे भारी दुःख हुआ और मैं मुँह लटकाकर उनके पास पहुँचा। सस्पेंड आदमी से क्या सहानुभूति बताई जाए? सांत्वना के कौनसे बोल बोले जाएँ? कैसे जीभ दबाकर 'च् च् च्' किया जाए? इसकी गुंजाइश नहीं रहती। सो मैं उनके पास मूक 'सिंपेथी विजिट' देने पहुँचा था।
रेलवे में एक होता है, टीसी। वह स्टेशन पर उतरने वाले यात्रियों के टिकट चेक करता व जमा करता है, जब वे गेट से निकलते हैं और एक होता है, टीटीई यानी चल टिकट निरीक्षक। वह सवारी गाड़ियों के भीतर टिकट या रिजर्वेशन टिकट वगैरह देखता है। पंडित मुन्नालाल भोले जो इस वक्त सस्पेंड थे, और मेरे जिगरी दोस्त होते थे, टीटीई थे।
निजी जीवन में शुद्ध पूजा-पाठी ब्राह्मण। माथे पर सर्वदा चंदन का टीका। दारू सिर्फ पूजा के बाद पीते, बल्कि इधर पूजा खत्म की और उधर गट्ट से एक गिल्लास पेट में उड़ेल डाली। पंडिताइन भाभी तभी साराइंतजाम कर देती, जब वे पूजागृह में घंटी हिला रहे होते।
एक तो शुद्ध चंदन का टीका। फिर अक्सर मुँह में कुचली जाती तुलसी की पत्ती। फिर कानों के लोबों पर दो बुँदकियाँ चंदन की और इसी के साथ घना गलमुच्छा। उन्हें देखकर बेटिकट चलने वाले को अपने आप लग जाता कि बिना पैसा लिए मास्टर छोड़ेगा नहीं और उनका भी छोड़ने का रिकॉर्ड कभी नहीं रहा।
पैसा मतरने के बाद वे रामायण की एकाध चौपाई जरूर कहते और तदुपरांत जाओ, पट्ठे मौज करो, कहकर आगे बढ़ जाते। उन्हें देखकर टिकटधारी यात्री को भी लगता कि वह जन्म-जन्मांतर से डब्ल्यूटी चला आ रहा है। मैं गया तो वे पूजा कर चुके थे और सोमरस के पान में भिड़े थे।
मुझे देखा तो बोले- लेव तो बनाऊँ तुम्हारे लिए भी। खास मिलीटरी की है। एक मेजर बक्शीस में दे गया था। फर्स्ट क्लास में जगह नहीं थी। फिर भी एडजस्ट कर दिया था। उसके बाद उन्होंने कहा- और पट्ठे सुनाओ क्या हाल हैं?
मैंने कहा- हाल तो आपका जानने आया था, पर मामला उलट है। सुना विजलेंस वालों ने सस्पेंड करा दिया? यह सुनते ही वे जोर से ठिल्ल-ठिल्ल हँसे। बोले- यह तो नौकरी है प्यारे। यारों से मोहब्बत चलती रहती है।
'पर सस्पेंशन की इस चरम स्थिति तक पहुँचे कैसे?'
'पुराना झगड़ा था। विजलेंस अधिकारी को एक मामले में केस बनाने को कह दिया था और पूजा नहीं दी।'
'फिर?'
'फिर क्या? कैश पहले ही बाथरूम में फेंक आया था। झरती में कुछ नहीं निकला। पैसेंजर के कोरे बयान से क्या होता?'
अर्थात- 'प्रूफ पर ही न पलिशमेंट है? सो हम कहा- देव प्रूफ।' भैया, जब चोरी का प्रूफै नहीं रहा तो कौन साला चोर? मेरी जान तेरी जुल्फों का पेचो-खम...'और वे खिस खिस हँसने लगे।
मेरे समझ में नहीं आया, आगे क्या कहूँ। इसलिए एक जनरल स्टेटमेंट का सहारा ले लिया।
बोला- 'आजकल ये लोग-बाग भी खूब डब्ल्यूटी चलने लगे।'
वे बोले- 'अच्छा है। अच्छा है। कम होंय तो और चलें। भाई, जिसके पास टिकट होता है, उसे देखकर तो मुझे आग लग जाती है। आत्मा तभी गदगद होती है, जब हमारा लाड़ला दुलारा बिना टिकट वाला हाथ चढ़े। अरे, वही न पैसा देगा? टिकटधारी साला किस काम का?'
'सबसे लेते हैं या कुछ को बख्श देते हैं?'
यह सुना तो उन्होंने फौरन कानों को हाथ लगाया-'राम राम, भोले, पंडित सग्गे बाप को नहीं छोड़ता। हाँ, एवरेज टारगेट के लिए कुछ पावतियाँ फाड़ देते हैं। बाकी ह, ह, ह।' वे पुनः ठिलठिलाए।
बताने लगे- 'इन सालों ने सस्पेंड कर दिया। पर नौकरी तो जाना नहीं है। घर पर आराम फरमा रहे हैं। रात जागने से बचे हैं। चौबीसों घंटे डटकर सोता हूँ। और, हा, हा, हा, आधी तन्खाह ससुरी मिल्लै रही है। भाई गलत कोई नहीं है। बस मौके-मौके की बात है। तुम क्या समझते हो कि कमाऊ गाड़ी ऐसे ही मिल जाती है? न्नाा? रोस्टर पर ड्यूटी लगाने वाले को मंथली देना पड़ता है। नहीं तो जाओ सरऊ कुर्ला पटना में, कासी इस्प्रेस में।'
आगे ज्ञानवर्द्धन किया- मगर भोले पंडित उहौ में निकाल लेते हैं। कैसे कि रात आठ बजे तक चेकिंगई शुरू नहीं करते। मुसाफिड़ जब रोटी खाकर ऊँघने लगता है और नींद में गिर-गिर पड़ता है, तब मुन्नालाल भोले चेकिंग पर निकलता है। ऐसे में नींद का झल्लया (कंजूस) बिहारी फटाक से पैसा निकालता है और बर्थ लेता है। समझेव?
समझा। पर बहुत कुछ समझना अभी बाकी था। मसलन, टीटियों में कुछ कोड वर्ड चलते हैं।
मैंने कहा- यह 'जीवीएल' क्या होता है, प्रभो?
वे मेरे जनरल नॉलेज को सुनकर बड़े प्रभावित हुए। उसकी पर्याप्त प्रशंसा की। फिर गुरु गंभीर होकर समझाने लगे- देखो, हम टीटीई भाइयों का दार्शनिक शब्द है। जब हमारा कोई साथी पहचान वाले की बला टालना चाहता है, तो उसी के सामने हमसे कहता है- इनका 'जीवीएल' कर देना। इसका मतलब है कि ढुप्पर पर लात मारकर भगा देना। थोड़ा नाटक-वाटक करके चलता कर देना।'
'और यह जो आपका परम प्रिय शब्द है- 'एमकेएलएल' देना, वह?'
'उसका बीजार्थ है- 'को ले लेना।' यानी वह हमारा पहचान वाला है। इसलिए हम पैसा नहीं ले सकते। मगर तुम लेकर बर्थ दे देना।'
'ओह।'
'हाँ, भाई, अपने-अपने धंधे के कोड हैं। भोपाल के 'वल्लभ भवन' में एक अफसर अब आउटिंग पर जाता है, तो दूसरे से कहता है- 'चिड़िया बनाकर तुम भी आ जाना'। यानी दस्तखत करके हाफ डे मार लेना। इससे काफी सहूलियत होती है।' मेरे सारे प्रश्न खत्म हो गए थे। पूछने को कुछ बचा न था। सहानुभूति जताने आया था। पर वह पहले दर्जे की मूर्खता थी। मैं उनकी चिंता में दुबला हो रहा था। पर वे अपने दुर्भाग्य पर मुटा रहे थे। मैंने उन्हें मुअत्तल होने की शाबाशी दी और उल्टे पाँव लौट आया। ऐसे सस्पेंशनों का तो वे कुल्ला करते रहते हैं।