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जब प्यार किसी से होता है

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स्मृति आदित्य

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वास्तव में प्रेम देने की प्रवृत्ति है, इसमें लेने की आकांक्षा नहीं रहती। दो व्यक्तियों के बीच जब यह अतिशय कोमल संबंध अंकुरित होता है तब एक साथ बहुत कुछ घटित होता है, समूचा व्यक्तित्व महकता उपवन हो जाता है और रोम-रोम से सुगंध प्रस्फुटित होने लगती है। प्रेम, जिसमें उत्फुल्लता का उत्तुंग शिखर भी मुस्कराता है और वेदना की अतल गहराई की भीगी खामोशी भी व्यक्त होती है। सच्चा और मासूम प्रेम बस प्रिय की समीपता का आकांक्षी होता है।

प्रशंसा की मंशा और निर्निमेष दृष्टि से देखने की भोली इच्छा से आगे शायद ही कुछ सोचता है। अधिक हुआ तो कोमल स्वीकारोक्तियाँ निवेदित करने की, सुकुमार भावों से अभिव्यक्ति की या फिर प्रिय पात्र के ऊपर विपुल मोहकता और स्पृहणीयता आरोपित करने की भावना होती है। प्रेमियों के लिए एक-दूसरे की संगति अत्यंत मूल्यवान होती है, उसकी उपलब्धि के लिए वे सदैव सचेष्ट रहते हैं।

प्यार एक विलक्षण अनुभूति है। समूचे विश्व में आज भी इसकी खूबसूरती और मधुरता की मिसालें कायम की जाती हैं। इस सुकोमल मनोभाव पर सदियों से बहुत कुछ लिखा, पढ़ा और सुना जाता रहा है, बावजूद इसके इसे समझने में भूल भी होती रही है। मनोवैज्ञानिकों ने इस मीठे अहसास की भी गंभीर तात्विक विवेचना कर डाली, लेकिन फिर भी मानव मन ने इस शब्द की आड़ में छला जाना जारी रखा है।

प्रेम को महापुरुषों ने ईश्वरीय स्वरूप माना है। महान विचारक लेमेन्नाइस कहते हैं, 'जो सचमुच प्रेम करता है, उस मनुष्य का हृदय धरती पर साक्षात्‌ स्वर्ग है, ईश्वर उस मनुष्य में बसता है क्योंकि ईश्वर प्रेम है।' लूथर के विचार हैं, 'प्रेम ईश्वर की प्रतिमा है और निष्प्राण प्रतिमा नहीं, अपितु दैवीय प्रकृति का जीवंत सार, जिससे कल्याण के गुण छलकते रहते हैं।'

प्यार करने वाले व्यक्ति में अपने प्रिय पात्र को सुख पहुँचाने और संरक्षण देने का आवेग सबसे प्रबल होता है। वह वो सब कुछ करने को तत्पर रहता है जो प्रिय व्यक्ति को हर्षित कर सकता है। प्यार की गहराई इस हद तक भी होती है कि चोट एक को लगे तो दर्द दूसरे को हो या उदास एक हो तो आँसू दूसरे की आँखों में छलक जाएँ। इस प्रकार की प्रगाढ़ अनुभूतियाँ प्रेम के अवयवों में परिगणित की जाती हैं। इन अनुभूतियों में परकेंद्रितता का बाहुल्य होता है। इस तरह की सुकुमारता बरतने से एक सुशिष्ट तृप्ति का आभास होता है। इन नर्म नाजुक भावनाओं की अभिव्यक्ति कई रूपों में होती है।

बड़ी-बड़ी त्यागमयी उदारताओं से लेकर छोटे-छोटे सुविचारित कार्य अथवा अनूठे उपहार तक। इन अभिव्यक्तियों का मूल्य इस बात पर निर्भर नहीं करता कि जो कुछ किया जा दिया गया है, वह कितना महान है बल्कि उन भावनाओं पर निर्भर करता है जो इन अभिव्यक्तियों द्वारा सम्प्रेषित होती हैं। अक्सर इन स्नेहिल उपहारों में सर्वाधिक मुखरता तब आती है जब एक नन्हा-सा प्रतीक भी अपने भीतर एक विराट अर्थ को समेट लेता है।

किसी प्रेमी के हर्ष का पारावार नहीं रहता जब उसे प्रेम का प्रतिदान मिलता है और जब उसे किसी अत्यंत प्रिय पात्र द्वारा स्नेहपूर्वक स्वीकार किए जाने पर परितोष की गहन शीतल अनुभूति होती है। स्वीकारने और स्वीकृत किए जाने का अनुभव अत्यंत मोहक व तोषदायक होता है। 'प्यार में व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति की कामना करता है, जो एक स्वतंत्र व्यकित के रूप में उसकी अनन्यता को कबूल करे, स्वीकारे और समझे। इसकी यह इच्छा ही उसके प्रथम प्रेम का मार्ग प्रशस्त करती है।'

इन उदाहरणों का यह अभिप्राय कतई नहीं है कि जिन बातों का उल्लेख हुआ है, वे किसी प्रेम संबंध को निश्चित ही विनष्ट कर देती हैं। यहाँ यह मान्यता भी नहीं है कि किसी प्रेम संबंध को तभी स्वस्थ कहा जा सकता है जब वह पूर्णतः पवित्र और मानवीय दुर्बलताओं से सर्वथा रहित हो, ऐसी पूर्णता मानव के लिए संभव ही नहीं है।

लेकिन मनोविज्ञान की इतनी तो दृढ़ मान्यता है कि वहाँ कोई अस्वस्थ मनोवृत्ति काम कर रही है, जहाँ कोई व्यक्ति प्रेमासक्ति की माया और उत्तेजना के माध्यम से अपनी उन आंतरिक समस्याओं से एक तरह की राहत चाहता है, जिन समस्याओं का समाधान किए बिना वह संभवतः पूरी हार्दिकता से न किसी अन्य व्यक्ति से प्रेम कर सकता है और न स्वयं अपने से। स्वस्थ प्रेम के विषय में मनोवैज्ञानिक मैकमरे ने उस प्रकार के प्रेम का उल्लेख किया है जिसमें पारस्परिक आत्मावेषण होता है।

हार्नी का कथन है कि 'सर्वोत्कृष्ट मैत्री' प्रेम का सार है। हार्नी के अनुसार प्रेम सम्मिलित रूप से उत्तरदायित्व वहन करने, आनंदानुभूति करने तथा महत्वपूर्ण कार्यों में योग देने का अवसर प्रदान करता है और प्रेम के लिए संवेगात्मक निष्कपटता और गहराई अपेक्षित है। उनके अनुसार प्रेम की यह शर्त भी है कि व्यक्ति अपने प्रेम-पात्र को उसके प्रकृत रूप में ही स्वीकारे, किंतु ऐसा करना उसी व्यक्ति के लिए संभव है जो स्वयं अपने को स्वीकार सकता है। दूसरे व्यक्ति को स्वीकार करने का मतलब यह नहीं है कि केवल उसकी त्रुटियों की ओर से आँखें मूँद लें और न यही कि उन दुर्बलताओं को न देखें, जिन्हें दूर करना संभव है।

विदेशी विचारक हेना मोर के अनुसार 'प्रेम बहस नहीं करता, अपितु भरपूर देता है, अविचारी उड़ाऊ पूत की तरह अपना सर्वस्व देता है और फिर थर-थर काँपने लगता है कि शायद उसने बहुत कम दिया है।' सचमुच प्यार, तभी तक प्यार है जब तक उसकी शुद्धता, संवेगात्मक गहनता और विशालता कायम है, अशुद्ध, उथला (सतही) और संकुचित प्यार न सिर्फ दो हृदय और दो व्यक्तित्वों का क्षरणकारी है अपितु कालांतर में दो भविष्यों, दो जीवन के स्याह होने की वजह भी। प्रेम-पर्व महज प्रेम करने का अवसर नहीं है बल्कि प्रेम को समझने का भी पड़ाव है और मनोविज्ञान इसे समझा सकता है, यदि आप चाहें।

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