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प्रमोद शर्मापिछले चुनाव की तुलना में भाजपा को कुछ सीटों का नुकसान उठाना पड़ा, किन्तु फिर भी पार्टी नेतृत्व इस इलाके के प्रदर्शन पर संतोष कर सकता है। इस बार मतदाताओं ने क्षेत्र के अनेक दिग्गजों को घर बिठा दिया तो कई नए चेहरे चुनाव जीतकर विधानसभा पहुँचे।इस बार चुनावी मैदान में जो खास नेता खेत रहे उनमें भाजपा के पूर्व मंत्री केवलारी से ढालसिंह बिसेन, छिंदवाड़ा से चौ.चंद्रभानसिंह, डिंडौरी से ओमप्रकाश धुर्वे, जबलपुर पूर्व से अंचल सोनकर, तेंदूखेड़ा से संजय शर्मा, बोधसिंह भगत, पुष्पलता कांवरे, भाजपा से कांग्रेस में आए सांसद चंद्रभानसिंह, जदयू की सरोज बच्चन नायक, कंकर मुंजारे, सपा के किशोर समरीते आदि शामिल हैं।
सिवनी की केवलारी सीट पर कांग्रेस के हरवंशसिंह और ढालसिंह बिसेन के बीच मुकाबला था। इस मुकाबले में एक बार फिर हरवंश ने कांग्रेस का परचम लहरा दिया है। इसी प्रकार छिंदवाड़ा में चिर परीचित प्रतिद्वंदी दीपक सक्सेना और मंत्री चंद्रभान सिंह में मुकाबला था।
दो बार से चोट खाकर बैठे दीपक ने इस बार चंद्रभान सिंह को पटखनी दे दी, जबकि दमोह सीट पर भी बार भाजपा से निष्कासित सांसद चंद्रभानसिंह का मुकाबला प्रदेश के कद्दावर मंत्री जयंत मलैया से था।
काफी जद्दोजहद और विवाद के बाद जयंत मलैया ने बाजी मार ली है। इसी प्रकार पूर्व मंत्री ओमप्रकाश धुर्वे को कांग्रेस के नए नवेले उम्मीदवार ओमकार मरकाम ने रिकार्ड मतों से पराजित कर दिया।
डिंडौरी और नरसिंहपुर जिलों में भाजपा का सूपड़ा ही साफ है। बालाघाट की कांग्रेस नेत्री पुष्पलता कांवरे को भी बार पराजय का स्वाद चखना पड़ा है। जबकि उपचुनाव में जेल में रहकर जीत का परचम लहराने वाले सपा के किशोर समरिते इस बार खेत रहे। लांजी सीट भाजपा छीनने में कामयाब रही है। नरसिंहपुर के तेंदूखेड़ा से भाजपा के बाहूबली विधायक संजय शर्मा को कांग्रेस के राव उदयप्रताप सिंह ने हरा दिया है।
अभी तक बालाघाट जिले की परसवाड़ा सीट पर भाजपा का प्रत्याशी नहीं जीत सका था। पहली बार भाजपा के रामकिशोर कांवरे ने यहाँ भगवा पताका लहराई है।उमा भारती ने चुनाव अभियान के दौरान कहा था कि यदि वे चुनाव में अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाईं तो केदारनाथ चली जाएँगी। अब जबकि वे खुद चुनाव हार गई हैं क्या वे केदारनाथ जाँएगी? अब यह सवाल राजनीतिक हलकों में पूछा जाने लगा है।
वर्ष 2003 में भाजपा ने अपनी चुनाव की वैतरणी उमा भारती के बल पर पार की थी। मात्र पाँच वर्ष में परिस्थितियाँ ऐसी हो गईं कि भारतीय जनशक्ति पार्टी की कर्ताधर्ता उमा भारती न केवल चुनाव हार गईं बल्कि अब उनके राजनीतिक करियर पर भी प्रश्न चिन्ह लग गया? उमा भारती अपनी टीकमगढ़ की सीट कांग्रेस के यादवेन्द्र सिंह बुंदेला से तीन हजार वोटों से हार गईं।
उमा भारती ने कुछ दिन पहले पार्टी की कमान गोविंदाचार्य को सौपी थी। इस बार उमा भारती ने चुनावी दौरों में यही कहा था कि वे भाजपा को हराने के लिए ही काम करेंगी। परंतु ऐसा कुछ भी नहीं हो पाया और खुद उमा ही अपनी सीट नहीं बचा पाईं। उन्होंने कहा था कि अगर वे चुनाव में जीत नहीं पाईं और अपने लक्ष्य को हाँसिल नहीं कर पाई तो केदारनाथ चली जाएँगी।
उमा के इस कथन को राजनीतिक हलकों में ज्यादा गंभीरता के साथ नहीं लिया गया, परंतु जब उन्होंने गोविंदाचार्य को पार्टी की कमान सौपने की बात की तब यह लगने लगा था कि शायद उमा को भी अपनी हार के बारे में पता था। किसी भी सेना के लिए यह विचित्र स्थिति होती हैं जब उसका सेनापति ही बीच रास्ते में हारकर वापस चला जाए। भाजश की हालत ऐसी ही सेना जैसी हो रही है जिसमें बीच युद्ध में सेनापति बदला गया है। कार्यकर्ता उमा भारती के इस निर्णय को समझ ही नहीं पाए और वह भी चुनाव परिणाम आने के एन पहले!
चाँटे का कमाल : भाजश ने इस बार के विधानसभा चुनावों में काफी बढ़चढ़ कर प्रचार किया था और उमा ने भी अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी थी। चुनाव प्रचार के दौरान ही उन्होंने अपनी पार्टी के कार्यकर्ता को चाँटा भी मारा था जिसकी गूँज काफी दूर तक गई थी। इस घटना के बाद कई कार्यकर्ताओं ने पार्टी भी छोड़ दी थी।
उमा ने तत्काल इस घटना को लेकर माफी भी माँग ली थी परंतु उमा की इस नौटंकीबाजी का कार्यकर्ताओं पर ज्यादा असर नहीं पड़ा था। भाजपा ने उमा से दूरी बनाने में ही अपनी भलाई समझी थी। उमा के सिपहसालार प्रहलाद पटेल ने काफी समय पहले ही उमा का साथ छोड़ दिया था। इसके बाद कई अन्य कार्यकर्ताओं ने भी पार्टी छोड़ दी थी। उमा को आशा थी कि एक न एक दिन भाजपा से उन्हें बुलावा जरूर आएगा परंतु ऐसा नहीं हुआ और अब उमा के समक्ष अपने राजनीतिक करियर को लेकर एक बहुत बड़ा प्रश्न खड़ा हो गया है।