Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

वादों पर पड़ेगी खाली खजाने की चोट

हमें फॉलो करें वादों पर पड़ेगी खाली खजाने की चोट
(भोपाल से राजेश सिरोठिया)
देश के पांच राज्यों में किसकी सरकार बनेगी यह सोमवार को तय हो जाएगा। दो महीने तक लगातार आरोप-प्रत्यारोप के बाद फैसले की घड़ी आई है। हो सकता है इनमें से कुछ राज्यों में मौजूदा सरकारें बदल जाएं मगर एक बात तय है कि यहां मौजूद चुनौतियां नहीं बदलेंगी। इन राज्यों में जो भी सरकार बनेगी उसे उन्हीं चुनौतियों से दो-चार होना पड़ेगा जिनसे मौजूदा सरकारें जूझ रही हैं। लगभग सभी राज्यों में बिजली, पानी और अर्थव्यवस्था की बुरी दशा चिंता का कारण है। नई सरकारों को इन चुनौतियों के साथ-साथ कुछ स्थानीय चुनौतियों से भी निपटना पड़ेगा। उदाहरण के लिए दिल्ली में किसी के लिए बीआरटी कॉरिडोर चिंता का कारण है तो किसी के लिए राष्ट्रमंडल खेल, राजस्थान में आरक्षण, मिजोरम में बेरोजगारी ज्यादा बड़ी चुनौती है तो छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद।

मध्यप्रदेश में नई सरकार कांग्रेस की हो या भाजपा की, पिछले तीन महीने से लोक लुभावन वादों से मगन आम नागरिकों के सपनों का शीशा चटकने ही वाला है क्योंकि नई सरकार के सामने आर्थिक चुनौती मुंह बाए खड़ी है। अब वह मंदी की मार से निपटे या फिर वादों को निभाने के लिए कर्ज ले या जनता की जेब पर बोझ डाले। पहले से ही साठ हजार करोड़ रुपए के कर्ज से दबे मध्य प्रदेश में जो भी नई सरकार बनेगी उसके लिए अपने वादे निभाना टेढ़ी खीर होगी।

पहले कमर तोड़ महँगाई से आम जनता के साथ सरकार भी परेशान हो उठी थी तो अब सबसे बड़ी चुनौती मंदी की मार से निपटने की होगी। मंदी के चलते राज्य की आमदनी पर भारी फर्क पड़ने वाला है। चुनावी साल में कर वृद्धि से बचने की कोशिशें और जन हितैषी दिखने के फेर में राज्य के सरकारी खजाने का मुंह खुला रहा। मध्यप्रदेश में तेरह दिसंबर तक नई सरकार का गठन होना है। यदि त्रिशंकु की नौबत नहीं आई तो सोमवार आठ दिसंबर को दोपहर तक यह तय हो जाएगा कि सरकार किसकी बनेगी। सत्ता पलट होने की स्थिति में नई सरकार का आमतौर पर यही बयान आता है कि उसे विरासत में खाली खजाना मिला है। लेकिन चार महीने के भीतर ही प्रदेश को लोकसभा चुनाव का भी सामना करना है।

ऐसी स्थिति में कोई भी नई सरकार लोगों के सिरों पर करों का बोझ डालने की हिमाकत नहीं कर सकती। यदि लोकसभा के चुनाव फरवरी में होते तब तो कोई बात नहीं, लेकिन यह अप्रैल तक टले तो फिर सरकार नियमित बजट लाने की बजाए अनुपूरक बजट के सहारे अप्रैल तक काम चलाएगी और लोकसभा चुनाव के बाद अपना मुख्य बजट पेश करेगी। जाहिर है कि नई सरकार के गठन के बाद भी खजाने से जुड़े मसले उसको अगले चार महीने तक परेशान करते रहेंगे।

वैसे नई सरकार के सामने सबसे बड़ा संकट बिजली को लेकर ही खड़ा होने वाला है। इस साल भोपाल, जबलपुर, होशंगाबाद संभाग से लेकर मालवा और निमाड़ का इलाका सूखे की चपेट में है। पानी कम गिरने से नर्मदा नदी पर बने बांध सूखे रह गए हैं। इसके कारण राज्य में पनबिजली उत्पादन कम हो गया है। सूखे से उपजे मैदानी हालात यही बयां कर रहे हैं कि नई सरकार को जनवरी बीतने के साथ ही बड़े पैमाने पर सूखा राहत के काम शुरू कराने होंगे। पचास से ज्यादा शहरों और कस्बों में पीने के पानी के वैकल्पिक इंतजाम करना होंगे।

बिजली और पानी के कुदरती संकट के साथ ही सरकार ने चुनावी साल में राजनीतिक मजबूरियों के चलते जो लोक लुभावन फैसले लिए हैं, उनका गहरा असर सरकार के खजाने पर पड़ा है। छठे वेतन आयोग के चलते घोषित बीस फीसदी अंतिरम राहत ने ही राज्य का सारा बजट गड़बड़ा दिया है। ढाई हजार करोड़ रुपए का सालाना अतिरिक्त बोझ सरकार के माथे आ रहा है। फिर तकरीबन छह हजार करोड़ रुपए सरकार को नए वेतन के एरियर के लिए भी जुटाना है।

नए साल में सरकार को छठे वेतनमान की सिफारिशों को भी जस का तस लागू करना है। इसके चलते मोटे तौर पर हर कर्मचारी की पगार पैंतीस फीसदी बढ़ने वाली है। वेतन के कारण खजाने पर पड़ने वाला बोझ साढ़े चार हजार करोड़ तक पहुँच जाएगा। इसका सीधा अर्थ यही है कि यदि सरकार ने इसके लिए अतिरिक्त संसाधन नहीं जुटाए तो इसका सीधा असर विकास के काम पर पड़ेगा। गैर आयोजना खर्च में बढ़ोतरी और योजना मद में कमी से केंद्र से ज्यादा पैसा जुटाने की उम्मीदें भी धुंधली पड़ेंगी।

राज्य में यदि भाजपा की ही सरकार रहती है तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान चुनावी साल के दौरान मोटे तौर पर दस हजार करोड़ की घोषणाएं कर चुके हैं। वैसे वित्त मंत्रालय के अफसरों का मानना है कि वास्तविक खर्च का अंदाजा तो तभी होगा, जब उनके ऐलानों को जमीन पर उतारने के लिए उनका खाका तैयार किया जाएगा। कांग्रेस और भाजपा दोनों ने सत्ता में आने के लिए आसमान से तारे तोड़कर ला देने वाले वादे कर रखे हैं। उनके सामने इन वादों की कसौटी पर लोकसभा चुनावों के पहले ही खरा उतरने का दबाव होगा। इसमें कांग्रेस का सबसे पहला वादा पांच हार्स पावर तक के किसानों को मुफ्त बिजली देने का है। 1993 में इसी वादे को पूरा करने के चक्कर में मध्य प्रदेश के बिजली बोर्ड का दिवाला निकल गया था। राज्य के औद्योगिक परिदृश्य पर इसका सीधा असर पड़ा था।

उसका दूसरा बड़ा वादा भी बिजली बोर्ड पर करारी चोट करने वाला है। कांग्रेस ने हरिजन आदिवासियों के साथ ही पिछड़े वर्ग, अल्पसंख्यक तथा सामान्य वर्ग के गरीबों को भी एक बत्ती कनेक्शन मुफ्त देने का वादा किया है। शिवराज सरकार ने तीन रुपए किलो गेहूं देने का वादा किया तो कांग्रेस ने दो कदम और आगे बढ़ते हुए गरीबों को दो रुपए किलो और अति गरीबों को मात्र एक रुपए किलो की दर से गेहूं देने का वादा कर दिया। गरीबों को दो रुपए लीटर कैरोसीन तथा गरीबी की रेखा के नीचे महिला और पुरुषों को निःशुल्क साड़ी तथा धोती देने का संकल्प भी जताया गया है।

यदि इनकी पूर्ति सरकार करती है तो सरकार पर तीन हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा का भार पड़ने वाला है। साठ हजार करोड़ के कर्ज में डूबे मध्य प्रदेश में इन तमाम वादों की पूर्ति के लिए सरकार संसाधन कहां से जुटाएगी, इसकी घोषणा राजनीतिक दलों के घोषणापत्र में होने का तो खैर सवाल ही नहीं उठता लेकिन किसी भी दल ने किसी मंच से भी इस बात का खुलासा नहीं किया है कि वह संसाधन कहां से जुटाएंगे।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi