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'डिंक्स कपल' का अपना राग

'डबल इनकम नो किड्स' का बढ़ता चलन

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गायत्री शर्मा

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कल तक हमारे बड़े-बुजुर्ग अपने बेटे-बहुओं को उनकी गोद हरी-भरी रहने का तथा खुशहाल वैवाहिक जीवन का आशीर्वाद देते थे। बच्चों के विवाह के बाद ही वंशवृद्धि के लिए नाती-पोतों की चाह उनके मन में नई उमंगें भरने लगती थीं।

यह परिदृश्य होता था उन संयुक्त परिवारों का, जिनका घर-आँगन बच्चों की शरारतों व शोरगुल से हरा-भरा रहता था लेकिन आज हमारा नजरिया व नजारा दोनों ही बदल गए हैं। अब ठीक इसके विपरीत होता है। पश्चिम की तर्ज पर आज भारत में भी दं‍पतियों में 'डबल इन्कम नो किड्स' के ट्रैंड का चलन बढ़ गया है।

वर्तमान के महत्वाकांक्षी युवा अब अपनी कामयाबी व उन्मुक्तता में किसी भी रोड़े को स्वीकार नहीं करना चाहते फिर चाहे वो उनकी संतान ही क्यों न हो। परिवार व समाज के दबाव से वो विवाह के बंधन में तो बँध जाते हैं परंतु संतान सुख के नाम पर वे कन्नी काटने लगते हैं।

आज भारत में भी आपको कई ऐसे नौकरीपेशा दं‍पति देखने को मिल जाएँगे, जिनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य पैसा कमाना और प्रसिद्धि पाना है। ऐशो-आराम में जीने वाले इन लोगों के लिए संतान सुख कोई मायने नहीं रखता। उनका सोच होता है- बच्चे तो कभी भी पैदा हो सकते हैं परंतु कामयाबी केवल एक निर्धारित समयावधि में ही मिल सकती है।

क्या है कारण :-
'डिंक्स कपल' के इसके पीछे अपने तर्क हैं। वर्तमान के महत्वाकांक्षी युवा उन्मुक्तता के ऊँचे आकाश में अपनी लंबी उड़ानें भरना चाहते हैं। संतान की झंझट व जिम्मेदारियों के चक्र में उलझकर वे अपने हाथों से अपने सुनहरे सपनों का गला नहीं घोंट सकते हैं।

विवाह के पश्चात सात-आठ सालों तक संतान पैदा न करने का निर्णय उनका आपसी सहमति से लिया गया निर्णय होता है, जिसमें वे किसी के हस्तक्षेप को बर्दाश्त नहीं कर सकते।

हम चाहते हैं कुछ कर दिखाना :-
'डबल इन्कम नो किड्स' का राग अलपाने वाले दं‍पति यह मानते हैं कि संतान सुख मतलब अपनी नौकरी से अवकाश व परिवार तथा बच्चों के झमेले में फँसकर अपनी आजाद जिंदगी से बंधनभरी जिंदगी में प्रवेश।

अपने प्रमोशन और करियर में आने वाली बाधाओं से मुक्ति के लिए वे संतान सुख से वंचित रहना अधिक मंजूर करते हैं। ग्लैमर के क्षेत्र से जुड़ी महिलाओं के लिए तो संतान अपने फिगर व करियर दोनों के लिए फुलस्टॉप लगती है इसलिए वो पहले से ही संतान सुख से वंचित रहने की प्लानिंग करके चलती हैं।

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* हमारे पास हैं विकल्प :-
इस प्रकार की सोच रखने वाले दंपति हमारी पुरानी मान्यताओं को झूठा ढकोसला मानते हैं। उनके लिए हमारे बड़े-बुजुर्गों की यह एक गलत सोच है कि संतान वंशवृद्धि में सहायक व माता-पिता के बुढ़ापे का एकमात्र सहारा है। वो तो इसके ‍विकल्प के रूप में यह तर्क देते हैं कि बच्चा यदि बुढ़ापे का सहारा है तो हम जब चाहे तब अनाथालय से बच्चा गोद भी ले सकते हैं।

कौन संभालेगा बच्चों को :-
वर्तमान में महानगरीय सभ्यता का चलन है, जिसने एकल परिवार प्रणाली को जन्म दिया है। महानगरों में स्थान की कमी, समय की कमी तो कारण है ही, इसके साथ ही संबंधों में अरुचि भी आज एक नई मानसिकता के रूप में पनप रही है। संयुक्त परिवारों के ह्रास ने जहाँ एक ओर युवाओं की उन्मुक्तता के रास्ते को आसान बना दिया है, वहीं दूसरी ओर उनकी कई मुश्किलों को भी बढ़ा दिया है।

संयुक्त परिवारों में तो घर के बड़े-बुजुर्ग बच्चों की देखभाल का जिम्मा उठा लेते थे, जिससे कि माता-पिता के लिए अपनी संतान की परवरिश का बोझ कुछ कम हो जाता था परंतु अब दौर बदल गया है। अब नौकरीपेशा माता-पिता के बच्चों की परवरिश कौन करेगा, यह एक महत्वपूर्ण समस्या बन गई है। इसके चलते भी कई दंपति संतान की चाह के सुख से मुँह मोड़ लेते हैं।

महँगाई का है दौर :-
आज महँगाई इस कदर बढ़ गई है कि व्यक्ति अपने स्टेटस को मेंटेन करने के चक्कर में रहे तो उसे कर्ज लेकर दिखावा करना पड़े। ऐसे में 'खूब कमाओ और सुख पाओ' का नारा युवाओं के जीवन का सूत्र वाक्य बन गया है। वे अपनी सारी इन्कम अपने शौक को पूरा करने में खर्च कर देते हैं, ऐसे में यदि संतान हो तो इन्हें अपने खर्चों से समझौता करना पड़ेगा, जो इन्हें मंजूर नहीं है।

हमारे यहाँ तो कहा जाता है कि 'बच्चे ईश्वर का वरदान होते हैं', जो खुशनसीब लोगों को ही प्राप्त होते हैं। 'डबल इन्कम नो किड्स' की राह पर चलने वाले दंपति शायद उन लोगों के दर्द व पीड़ा को महसूस नहीं कर सकते हैं, जो किसी कारण से संतान सुख से वंचित रहते हैं। अपने घर-आँगन में नन्हे की किलकारी की चाह उनसे अधिक किसी और को नहीं होती है।

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