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धरती का दूसरा स्वर्ग - 'कुल्लू मनाली'

इंतहा... सैर के रोमांच की

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- विलास जोशी

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धरती का दूसरा स्वर्ग है-'कुल्लू मनाली'। यहाँ की सुंदर वादियों को निहारना, जीवित अवस्था में 'स्वर्ग' देखने जैसा लगता है। हम इंदौर से जम्मू-तवी ट्रेन से 'अम्बाला केंट' के लिए रवाना हुए। अम्बाला केंट से हमने एक निजी कार हायर की और मनाली के लिए रवाना हुए।

अम्बाला केंट से मनाली का सफर करीब आठ-से-दस घंटे का है। शाम का वक्त था, हमारी कार पहाड़ियों की अटूट श्रृंखलाओं को चीरते हुए आगे बढ़ रही थी। एक तरफ 'सँकरा मार्ग' तथा दूसरी तरफ भागती-दौड़ती 'नदी' हमारे साथ चल रही थी। अगले दिन सुबह करीब दस बजे हम 'मनाली' पहुँचे।

दो-एक घंटे हमने होटल में आराम किया, फिर खाना खाने के बाद हम मनाली दर्शन के लिए निकले। सर्वप्रथम हम 'हिडिम्बा देवी' के दर्शन के लिए गए। वनवास के दौरान पांडव जब यहाँ रूके थे, तब भीम ने 'हिडिम्बा' से विवाह किया था। इस मंदिर के आसपासदेवदार के घने और ऊँचे-ऊँचे वृक्ष है, उन्हें देखो तो लगता है कोई 'तपस्वी' तप में लीन हो।

व्यास नदी ने समूचे मनाली को 'नौलखा हार' की तरह घेर कर रखा है। व्यास नदी के उस पार गरम और ठंडे पानी के कुण्ड है। प्रकृति दत्त झरनों का पानी उन कुण्डों में आते ही रहता है। प्रकृति का चमत्कार यह है कि दोनों कुण्ड पास-पास है, फिर भी एक कुण्ड में गरम, तो दूसरे में ठंडा पानी है। प्रकृति का यह अनोखा चमत्कार देखने के बाद कौन अभिभूत नहीं होगा भला?
  धरती का दूसरा स्वर्ग है-'कुल्लू मनाली'। यहाँ की सुंदर वादियों को निहारना, जीवित अवस्था में 'स्वर्ग' देखने जैसा लगता है। हम इंदौर से जम्मू-तवी ट्रेन से 'अम्बाला केंट' के लिए रवाना हुए। अम्बाला केंट से हमने निजी कार हायर की और मनाली के लिए रवाना हुए।      


मनाली के बाहरी भाग में हवा का एक अनोखा प्राकृतिक स्थान है-'झरोखा'। यह स्थान तीनों तरफ से पहाड़ियों से घिरा है। उन पहाड़ियों के बीच से लगातार ठंडी हवाएँबहती रहती है, इसीलिए हनीमून मनाने आने वाली नव-जोड़ियाँ यहाँ विहार करते नजर आती हैं। यहाँ एक शिव मंदिर भी है, जो पूर्णतयाः 'लकड़ी' से बना है। यह प्राचीन कला कौशल का श्रेष्ठ प्रमाण है।

कुछ छोटे-छोटे गार्डन भी है, जहाँ पर्यटक बोटिंग का लुत्फ उठाते है।बोट क्लब के निचले हिस्से से चट्टानों के बीच से व्यास नदी बहती नजर आती है। फोटोग्राफी के शौकीनों के लिए यह सुंदर स्थान है, क्योंकि नदी की कल... कल ध्वनि में चट्टानों पर चढ़कर फोटोग्राफी करने का एक अलग ही आनंद है, शाम हो चली थी एवं सर्दी से बदन काँपने लगा था, इसलिए हम होटल वापस आ गए।

दूसरे दिन सुबह हम 'रोहतांग दर्रा' के लिए रवाना हुए, जो मनाली से करीब नब्बे किमी दूर है। सात-आठ पहाड़ियों की ऊँची-ऊँची श्रृंखलाओं को पार करते हुए वहाँ पहुँचना पड़ता है। चूँकि रोहतांग दर्रा पर ठंड अधिक होती है इसलिए हमने ओवर कोट व आईस शूज किराए कर लेकर पहन लिए। करीब तीस किमी की घाटियाँ पार करने के बाद गाइड ने कार रूकवाई। उसने हमें बताया कि यह शूटिंग पाइंट है, जब से कश्मीर में आतंकवाद बढ़ा है, तब से अधिकांश हिन्दी फिल्मों की शूटिंग इसी पाइंट क्षेत्र में होती है। इसके बाद करीब पंद्रह किमी की चढ़ाई पार करने के बाद हम 'मढ़ी' पहुँचे।

यहाँ थोड़ी देर रूकने के बाद हम अगले पड़ाव के लिए रवाना हुए व करीब दो बजे हम 'रोहतांग दर्रे' पर पहुँचे। जैसे ही हम यहाँ पहुँचे, कुदरत ने हमारा स्वागत एक अविस्मरणीय सौगात देकर किया और वह सौगात थी 'स्नोफाल' की। आसमान से गिरती बर्फ को देखकर हम उस प्रकृति के सामने आदर से नतमस्तक हो गए, क्योंकि पहाड़ों पर जमी बर्फ को देखने का आनंद थोड़ा अलग है, जबकि आसमान से गिरती बर्फ देखने का आनंद कुछ बिरला ही होता है। बर्फबारी के बीच ही हम घोड़ों पर सवार होकर रोहतांग दर्रे को देखने पहाड़ियोंकी तरफ निकल पड़े। सच कहूँ-रोहतांग दर्रे पर सैर करना मुझे सैर की इंतहा लगी, क्योंकि यह जितना-'रम्य स्थान है, उतना ही खतरों से भरा भी।

शाम होने लगी थी इसलिए हम वहाँ से मनाली के लिए निकल पड़े। अगले दिन हमें अम्बाला केंट से इंदौर के लिए रवाना हुए। इंदौर लौटने पर ऐसा लगा जैसे किसी सुहानी रात में देखा गया सुंदर सपना आँख खुलते ही टूट गया हो।

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