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आपातकाल... तब और अब

हमें फॉलो करें आपातकाल... तब और अब
राजेश ज्वेल 
 
1975 में आधी रात को इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल का भूत 40 साल बाद भी डराता आया है... पिछले दिनों भाजपा के वयोवृद्ध और हाशिए पर पड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी इस भूत का भय दिखाया... संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत इस आपातकाल को घोषित करते हुए लोकतंत्र को निलंबित कर दिया गया था... यह आपातकाल 21 मार्च 1977 तक जारी रहा...


इस दौरान देश ने राजनीतिक बर्बरता से लेकर मीडिया पर पहली दफा लागू की गई सेंसरशिप  के साथ-साथ 21 माह तक वे तमाम ज्यादतियां देखी और भोगी जिसकी कल्पना से ही भारत जैसा विशाल लोकतांत्रिक देश कांप जाता है, लेकिन उसी आपातकाल की कुछ अच्छाइयों को भी जब-तब याद किया जाता रहा है... जैसे जबरिया नसबंदी अगर जारी रहती तो कम से कम देश जनसंख्या के बोझ तले इस तरह नहीं दबा रहता या सरकारी दफ्तरों में कामकाज से लेकर ट्रेनों का टाइम टेबल पर चलना भी लोग आज ठीक उसी तरह याद रखते हैं जैसे अंग्रेजों का जमाना भी याद किया जाता है... आज भारत भले ही खुद अपनी पीठ दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने के नाते थपथपाए, मगर हकीकत यह है कि आज भी जनता मूलभूत सुविधाओं और अधिकारों से वंचित है और पूरे लोकतंत्र पर चंद लोगों का ही कब्जा है...

अभी आपातकाल के मद्देनजर देश भर में फिर बहस शुरू हो गई और यह भी अंदेशा प्रकट किया जाने लगा कि क्या श्री आडवाणी की चिंता जायज है और देश में फिर से आपातकाल की स्थितियां निर्मित हो सकती है..? दरअसल अब 1975 वाले आपातकाल की तो वापसी किसी सूरत में नहीं हो सकती... क्योंकि देश के साथ-साथ दुनिया भी इन 40 सालों में काफी बदल चुकी है... इंटरनेट और सोशल मीडिया के इस जमाने में अब जहां न्याय पालिका को भी आपातकाल के दिनों की तरह अपने वश में करना संभव नहीं है, वहीं मीडिया भी कई गुना ताकतवर हो गया है... प्रिंट मीडिया के साथ-साथ अब 24 घंटे के न्यूज चैनल भी हैं जो तिल का ताड़ बनाने में माहिर हैं... लिहाजा इंदिरा गांधी द्वारा थोपा गया आपातकाल तो नहीं लौट सकता है... मगर हां, जिस तरह संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करने का काम किया जा रहा है उससे अघोषित आपातकाल की संभावना अवश्य बनती है...

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कमिटेड ज्युडीशरी के साथ-साथ कमिटेड अफसरशाही जहां इस तरह के अंदेशे को बढ़ाती है वहीं सूचना के अधिकार अधिनियम को कमजोर करने के साथ-साथ संसद में नेता प्रतिपक्ष का ना होना, सीवीसी में साल-साल भर तक नियुक्तियों को लटकाए रखना, कैग जैसी संस्थाओं को चेतावनी देना और सीबीआई रुपी तोते को भी सरकारी पिंजरे से आजाद ना करने के साथ-साथ लोकपाल की नियुक्ति को भी अटकाए रखना जैसे कदम ही अघोषित आपातकाल की पदचाप ही है, जिसे आसानी से महसूस किया जा सकता है... इसमें भी कोई शक नहीं कि जब कोई मसीहाई नेतृत्व उभरता है और उसे प्रचारित भी इसी तरह किया जाता है तब-तब आपातकाल जैसे डर सताने लगते हैं... जब एक ही व्यक्ति की छवि विशाल बना दी जाए और वह पार्टी-संगठन से भी ऊपर माना जाए और सब तरफ उसी का कब्जा हो और उसे संवैधानिक संस्थाओं से पुरानी एलर्जी भी रही हो तो आपातकाल एक नए रूप में अवश्य नजर आने लगता है... आज देश के बुद्धिजीवियों, कलमकारों के साथ-साथ ईमानदार राजनेताओं को 1975 के आपातकाल की वापसी की चिंता छोड़कर संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर किए जाने के सुनियोजित षड्यंत्रों को अवश्य महसूस करना चाहिए और इन संस्थाओं को और अधिक स्वतंत्र तथा मजबूत बनाने की लड़ाई लडऩा चाहिए, तो आपातकाल को भूत कभी नहीं सताएगा...
 
(लेखक इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार हैं और सांध्य दैनिक अग्निबाण से संबद्ध भी हैं।)  

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