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सकारात्मक विचार : कच्चे घड़े न बनें

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गरिमा संजय दुबे

कहने की आवश्यकता नहीं कि सिंहस्थ पर्व पर प्राकृतिक आपदा की मार ने हम सभी को विचलित किया है। कोई इसे गुरु चांडाल योग का प्रभाव बता रहा है तो कोई पर्यावरण असंतुलन। ऐसा पहली बार तो नहीं हुआ कि मई के प्रथम सप्ताह में मानसून पूर्व बरसात हुई हो, हां बारह बरस बाद कुंभ में इस घटना का होना  इसे कुंभ में पहली बार हुई घटना जरूर बना रहा है।
 

बारह बरस में बहुत पानी बह गया नदियों में। पर्यावरण असंतुलन अपने चरम पर है और सिंहस्थ के कारण  ही इसकी चर्चा अधि‍क होगी और चिंता भी। होनी भी चाहिए, इतने लोगों की चिंता क्यों न हो?
 
पर्यावरण असंतुलन पर तो पर्यावरणविद अपनी राय देंगे ही, मैं हमारे व्यक्तित्व के असंतुलन पर बात करना चाहुंंगी। हम सभी चिंतित हैं, लेकिन हम सभी की चिंता के तरीके अलग-अलग हैंं। मनोविज्ञान कहता है किसी घटना पर हुई आपकी पहली प्रतिक्रिया आपके व्यक्तित्व के सारे पहलुओं को उघाड़ कर रख देती है। यदि प्रतिक्रिया नकारात्मक है तो आप निराशावादी व्यक्ति हैं और प्रतिक्रिया सकारात्मक है तो आप आशावादी हैं।
 
अब सवाल यह उठता है कि त्रासदी के समय सकारात्मकता कैसे संभव हो? घटना के बाद कुछ लोगों ने अपने ड्राइंग रूम में बैठ कर गरम पकोड़ी और चाय के साथ सरकार और प्रशासन को खूब कोसा, फालतू बैठे बुद्धिजीवी आलोचक अचानक काम मिलने पर अपने सारे हथियार ले टूट पड़े, घर में बैठे-बैठे उनमें से एक भी घर के बाहर नहीं निकला। प्राकृतिक आपदा पर तो किसी का बस नहीं, किंतू हमारी बुद्धि और वाणी पर हमारा बस तो हो।
 
पूरा उज्जैन महादेव का नाम ले जुट गया इस आपदा से निपटने के लिए, क्या स्वयं सेवी संस्थाएं, क्या कार्यकर्ता, क्या प्रशासन, क्या अधिकारी, क्या मंत्री, सब इस प्राकृतिक आपदा के समक्ष अपनी आस्था और विशवास को सहेजे डटे रहे और एक दो दिन में उनकी यह जीवटता स्थि‍ति को फिर से सामान्य बना ही देगी । आस्था और बुद्धि में यही अंतर है। आस्था हर विपत्ति में रास्ता ढूंढ ही लेती है और अति बुद्धि विघ्नसंतोषी प्रकृति की होती है। यदि बुद्धि का काम सिर्फ आलोचना करना ही है, तो मैं बुद्धिहीन कहलाना अधि‍क पसंद करूंगी।
 
निष्क्रिय बुद्धिजीवी से सक्रिय कार्यकर्ता श्रेष्ठ हैं। जो वहां थे वे ही वहां के हालात जानते हैं और लगे हुए है। उनकी आस्था इतनी प्रबल है कि वे ऊफ तक नहीं कर रहे और यहां कई बुद्धिजीवी अपनी बुद्धिमता के पिटारे को खोल उसकी दुर्गंध से मददगारों के हौंसले तोड़ने का काम कर रहे हैं। अपनी ही बुद्धि के बोझ तले उनका भाव तत्व दब गया है। आलोचना दो चार दिन बाद कर लेंगे, फिलहाल तो यदि मन में थोड़ी संवेदना और उदारता ही रख सकें तो यह घावों पर मरहम होगा।
 
कच्चे घड़े पर चोट पड़ते ही वह टूट जाता है और पक्के घड़े पर पड़ी चोट संगीत उत्पन्न करती है। कच्ची गीली लकड़ी आग के संपर्क में आने पर पूरे वातावरण को प्रदूषित कर देती है पक्की लकड़ी कभी ईंधन का रूप ले पोषण देती है और कभी वह यज्ञ की समीधा के रूप में वातावरण को महका देती है। कच्चा मन तुरंत नकारात्मक प्रतिक्रिया देता है और पक्का मन संवेदनशीलता दिखाता है। उज्जैन में जो कार्य कर रहें है वे सब आस्थावान हैं, आशावादी हैं। उज्जैन ने तो साबित कर दिया है कि वह पक्का घड़ा है, यज्ञ की समीधा है और पक्के मन वालों का नगर है। हो भी क्यूं ना, अध्यात्म आपको कच्चा नहीं रहने देता। अब आप निर्धारित करें कि आप क्या कहलाना पसंद करेंगे?

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