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पांच राज्यों के चुनाव और मोदी की नोटबंदी की परीक्षा

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- ब्रह्मानंद राजपूत
 
केंद्रीय चुनाव आयोग ने देश के पांच राज्यों (उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा, और मणिपुर) में विधानसभा चुनावों की तारीखों का ऐलान कर दिया है। चुनाव आयोग की घोषणा के बाद पांचों राज्यों में आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू हो गई है। उत्तराखंड, पंजाब, और गोवा में एक चरण में  मतदान कराया जाएगा। मणिपुर में दो चरण में मतदान होगा और देश की सबसे बड़ी विधानसभा उत्तर प्रदेश में सात चरणों में चुनाव संपन्न कराए जाएंगे। 
पंजाब में 117 सदस्यीय विधानसभा के लिए 4 फरवरी 2017 को मतदान होगा। उत्तराखंड में 70 सदस्यीय विधानसभा के लिए 15 फरवरी 2017 को लोग नई सरकार चुनने के लिए मतदान करेंगे। गोवा की 40 सदस्यीय विधानसभा के लिए 4 मार्च 2017 को मतदान होगा और मणिपुर 60 सदस्यीय विधानसभा के लिए दो चरणों में 4 मार्च और 8 मार्च को मतदान होगा। जनसंख्या की दृष्टि से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की 403 सदस्यीय विधानसभा के लिए 7 चरणों में क्रमशः 11 फरवरी, 15 फरवरी, 19 फरवरी, 23 फरवरी, 27 फरवरी, 4 मार्च और 8 मार्च को मतदान होगा। पांचों राज्यों में पड़े मतों की मतगणना 11 मार्च 2017 को होगी।
 
अब पांच राज्यों के चुनावों की घोषणा होते ही पांचों राज्यों की प्रमुख राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों में चुनाव जीतने के लिए जद्दोजहद होगी। हर पार्टी अपने आप को दूसरी पार्टी से बेहतर बताएगी। और प्रत्येक पार्टी द्वारा अपने घोषणा पत्रों में तमाम तरह की लोकलुभावन चीजों की घोषणा की जाएगी, जिससे कि मतदाताओं को लुभाया जा सके। पांचों राज्यों में सत्तारुढ़ पार्टियों के लिए अपनी सरकार बचाने की चुनौती होगी और विरोधी पार्टियों के लिए अपनी सरकार बनाने की चुनौती होगी। 
 
पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में केंद्र में सत्तारुढ़ भाजपा की सफलता और असफलता सीधे-सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की साख को प्रभावित करेगी। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत का सेहरा भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सिर पर सजेगा और हार का ठीकरा भी मोदी के मत्थे मढ़ा जाएगा। इन पांच राज्यों में से गोवा में भाजपा की सरकार है। पंजाब में भाजपा और शिरोमणि अकाली दल की गठबंधन सरकार है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार है और उत्तराखंड और मणिपुर में कांग्रेस पार्टी की सरकारें हैं। गोवा और पंजाब में भाजपा के लिए सरकार बचाने की चुनौती होगी। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और मणिपुर में सरकार बनाने की चुनौती होगी। इन चुनावों के नतीजों का सीधा-सीधा असर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार पर पड़ेगा।
 
अगर उत्तर प्रदेश की बात की जाए तो सबसे ज्यादा साख इन विधानसभा चुनावों में भाजपा की दांव लगी है, क्योंकि भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनावों में 73 सीट जीतकर एक रिकॉर्ड कायम किया था और भाजपा 300 से ज्यादा विधानसभा सीटों पर पहले स्थान पर रही थी, लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति में भाजपा पिछले 14 सालों से वनवास भोग रही है, इसलिए भाजपा के लिए 2014 के लोकसभा चुनावों के प्रदर्शन को दोहराने की चुनौती होगी। साथ-साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी सबसे ज्यादा साख उत्तर प्रदेश के चुनावों में लगी है। एक तो नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश के वाराणसी से सांसद हैं, साथ-साथ 2014 के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में सबसे बड़ी भूमिका उत्तर प्रदेश की ही रही है। 
 
अगर उत्तर प्रदेश में भाजपा अच्छा प्रदर्शन करती है तो नरेंद्र मोदी की साख बढ़ेगी। अगर भाजपा का लचर प्रदर्शन रहता है, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर चारों तरफ से दवाब बढ़ेगा। उत्तर प्रदेश में भाजपा को सपा, बसपा, कांग्रेस, रालोद जैसी धुरंधर पार्टियों से भिड़ना पड़ेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की परिवर्तन रैलियों में उमड़ रही भीड़ से तो उत्तर प्रदेश में भाजपा का रंग लग रहा है। लखनऊ के रमाबाई मैदान में नरेंद्र मोदी की परिवर्तन रैली को देखकर तो ऐसा लग रहा था कि भाजपा कि जीत सुनिश्चित है, लेकिन जनता का रुख बदलते देर नहीं लगती। उत्तर प्रदेश के चुनावों में सपा की बात की जाए तो सपा अपने पारिवारिक झगड़े में उलझी हुई है। अगर सपा दो धड़ों में चुनाव लड़ती है तो निश्चित ही सपा का नुकसान तय है। 
 
अगर सपा के दोनों खेमें मुलायम खेमा और अखिलेश खेमा मिलकर चुनाव लड़ते हैं तो सपा नुकसान से बच सकती है। इसलिए सपा के लिए ये विधानसभा चुनाव अग्नि परीक्षा की तरह हैं। सपा के लिए एक तरफ पार्टी को एकजुट करने की चुनौती है और दूसरी तरफ चुनावों की चुनौती है। अब तो समय ही बताएगा की सपा इन चुनौतियों से कैसे निपटती है? उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी इस चुनाव को जीतने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते, लेकिन सपा की अंदरुनी पारिवारिक लड़ाई से पार पाना अखिलेश के लिए आसान नहीं है। पिछली बार सपा ने मुलायम सिंह के चेहरे को आगे रखकर ही चुनाव लड़ा था, लेकिन उस समय भी अखिलेश कि सपा को जिताने में अहम भूमिका थी और इसका इनाम भी अखिलेश को मुख्यमंत्री पद के रूप में मिला। 
 
अगर उत्तर प्रदेश के चुनावों में बसपा की बात की जाए तो मायावती के लिए यह चुनाव अहम है। एक तरफ मायावती के पास सपा की अंदरुनी पारिवारिक लड़ाई से पसोपेश में पड़े मुस्लिम वोट को अपने पाले में करने के लिए खास मौका है। इसका असर मायावती के टिकट वितरण में भी दिखता है। बसपा प्रमुख मायावती ने मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिए इस बार 97 विधानसभाओं पर मुस्लिमों को प्रत्याशी बनाया है। अगर मायावती का खास वोट बैंक दलित (खासकर जाटव मतदाता) और मुस्लिम समुदाय मिल जाता है तो बसपा निश्चित ही अच्छा प्रदर्शन कर सकती है। मायावती के नेतृत्व में मोदी की आंधी में बसपा लोकसभा चुनावों में खाता भी नहीं खोल पाई थी, लेकिन इस बार बसपा प्रमुख मायावती जीतने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। 
 
अगर मायावती की सोशल इंजीनियरिंग काम कर गई तो बसपा प्रमुख मायावती को मुख्यमंत्री बनने से कोई ताकत नहीं रोक सकती। उत्तर प्रदेश के चुनावों में अगर कांग्रेस की बात की जाए तो कांग्रेस के प्रचार को देखकर कांग्रेस अभी भी चौथे नंबर की पार्टी ही नजर आती है। मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में शीला दीक्षित भी कोई विशेष छाप नहीं छोड़ रही हैं। राहुल गांधी भी अब तक उत्तर प्रदेश में कई दौरे कर चुके हैं, लेकिन राहुल गांधी भी जनता के बीच विफल ही नजर आ रहे हैं। अब सबकी नजर कांग्रेस के मास्टर स्ट्रोक पर है। वो मास्टर स्ट्रोक कांग्रेस पार्टी द्वारा प्रियंका गांधी को पूरे प्रदेश में चुनाव प्रचारक के रूप में उतारना होगा, लेकिन प्रियंका चुनाव प्रचार करती भी हैं तो कांग्रेस के लिए थोड़े से समय में नंबर एक की पार्टी बनना दूर की कौड़ी ही लगता है, अगर राष्ट्रीय लोकदल की बात की जाए तो अजित सिंह की मौजूदा हालत को देखकर यही लगता है कि वो अपने पिछले 2012 वाले प्रदर्शन को भी दोहरा भी जाएं तो बहुत बड़ी बात होगी। 
 
इस चुनाव में भाजपा के पास उत्तर प्रदेश में कोई चेहरा नहीं है। उसे प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़ना है। बसपा मायावती के चेहरे पर ही चुनाव लड़ रही है। सपा का एक गुट अखिलेश के चेहरे पर चुनाव लड़ेगा और दूसरा गुट मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में लड़ता है। अगर सपा के दोनों गुट साथ भी लड़ते हैं तो चेहरे के लिए खींचतान होगी। कांग्रेस शीला दीक्षित को आगे कर ही चुकी है लेकिन अग्नि परीक्षा गांधी परिवार की ही होगी। अब देखना ये होगा कि 2017 के विधानसभा चुनावों में कौनसी पार्टी उत्तर प्रदेश में अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार बनाती है या फिर उत्तर प्रदेश त्रिशंकु विधानसभा की तरफ बढ़ेगा। 
 
इन पांचों राज्यों के चुनावों में मोदी सरकार द्वारा देश से कालेधन खत्म करने के लिए 1000 और 500 के नोटों के विमुद्रीकरण की भी परीक्षा होगी। अगर भाजपा पांचों राज्यों में अच्छा प्रदर्शन करती है तो नरेंद्र मोदी द्वारा 8 नवंबर 2016 को की गई बड़े नोटों की नोटबंदी पर जनता की मुहर लगेगी और विपक्ष को मुंह की खानी पड़ेगी, लेकिन भाजपा का थोड़ा सा भी लचर प्रदर्शन रहा तो विपक्ष को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला बोलने का मौका मिल जाएगा, इसलिए वर्ष 2017 में पांचों राज्यों (उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर) के चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए काफी अहम हैं। चुनाव आयोग ने चुनावों की तारीख का ऐलान कर दिया है। अब देखना यह है कि पांच राज्यों में सत्तारुढ़ पार्टियां अपना प्रदर्शन दोहराती हैं या विरोधी पार्टियां सत्ता पर काबिज होती हैं, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

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