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क्या वाकई कमलनाथ और दिग्विजय के बीच बढ़ रही हैं दूरियां?

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अरविन्द तिवारी

, सोमवार, 14 सितम्बर 2020 (21:43 IST)
बात शुरू करते हैं यहां से : मध्यप्रदेश में कमलनाथ-दिग्विजयसिंह के बीच बढ़ती दूरी की खबरें निराधार हैं, हकीकत तो यह है कि दोनों में गजब का तालमेल है। ये कह सकते हैं कि उनके 40 साल के राजनीतिक संबंधों की परिपक्वता है। असल में दिग्विजय को ये मलाल तो है कि मैं 2017-18 में सिंधिया से मुकाबले के लिए कमलनाथ को लाया, लेकिन उनकी सरकार को 5 साल चलवा नहीं पाया। उपचुनाव के बाद कैसे भी सरकार की वापसी कराई जाए, इसी के लिए दिग्विजय उपचुनाव वाले सभी जिलों में हर एक छोटे बड़े महत्वपूर्ण कार्यकर्ता से सीधा संपर्क जोड़ रहे हैं। अपने बेटे को प्रदेश स्तर पर लॉन्च करने में दिग्विजय कोई जल्दबाज़ी दिखाने के मूड में नहीं हैं। मतलब साफ है अभी कमलनाथ ही मध्यप्रदेश में कांग्रेस का चेहरा रहेंगे।

नरोत्तम मिश्रा की अनदेखी : क्या सचमुच मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिराने में सबसे ज्यादा सक्रिय रहे गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा ग्वालियर-चम्बल क्षेत्र में अपनी ही पार्टी और मुख्यमंत्री की उपेक्षा के शिकार हो गए हैं? शिवराज सिंह चौहान और ज्योतिरादित्य सिंधिया के हालिया दौरों ने इस सवाल को जन्म दिया है। दरअसल इन दौरों में नरेन्द्र सिंह तोमर साथ रहे, वहीं नरोत्तम की अनुपस्थिति को सबने नोटिस किया। यह स्वाभाविक भी था। सिंधिया का तालमेल भी नरोत्तम मिश्रा से उतना बन नहीं पा रहा है क्योंकि केंद्रीय राजनीति की वजह से सिंधिया नरेन्द्र सिंह तोमर को ज्यादा महत्व देना चाह रहे हैं। लेकिन राजनीतिक गुटबाजी जो भी हो नरोत्तम की अनदेखी चम्बल के ब्राह्मण वोटों को बीजेपी से दूर कर सकती है। अपने गृहनगर डबरा में जरूर नरोत्तम मंच पर दिखे जिसे लेकर यही कहा जा सकता है कि मजबूरी थी, बुलाना भी, जाना भी।

गर्दिश में हैं अरुण यादव के सितारे : बहुत कम उम्र में कांग्रेस की राजनीति में अहम मुकाम हासिल करने वाले अरुण यादव के सितारे वास्तव में गर्दिश में हैं। दो बार सांसद, केंद्रीय मंत्री और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे अरुण यादव को इस बार कांग्रेस वर्किंग कमेटी में जगह नहीं मिली। वह कमेटी में विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में शामिल किए गए थे लेकिन पुनर्गठन में उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में जब अरुण केंद्रीय उद्योग राज्यमंत्री थे तब एक विदेश यात्रा के दौरान घटित प्रसंग उनका मंत्री पद ले बैठा था। इस बार उनके सीडब्ल्यूसी से बाहर होने का कारण कमेटी की विवादित बैठक की खबर उनके द्वारा लीक करना माना जा रहा है। वैसे कमलनाथ के मुख्यमंत्री काल में भी अरुण साइड लाइन ही रहे।

मोघे को भारी पड़ा डॉ. खरे से पंगा : किसी जमाने में भारतीय जनता पार्टी के सर्व शक्तिमान महामंत्री रहे कृष्ण मुरारी मोघे की इतनी बुरी हालत होगी, यह किसी ने सोचा भी नहीं था। क्राइसिस मैनेजमेंट कमेटी की बैठकों में बिना बुलाए पहुंचने वाले मोघे को संघ के दिग्गज डॉ निशांत खरे से पंगा लेना भारी पड़ गया।‌ मोघे ने अपने इर्द-गिर्द रहने वाले कुछ लोगों के माध्यम से यह प्रचारित करवाया था कि डॉक्टर खरे को क्राइसिस मैनेजमेंट कमेटी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। 15 दिन पहले संघ कार्यालय में हुई एक बैठक में शहर खुलवाने के मामले में भाजपा नेताओं की भूमिका पर जो सवाल खड़े हुए थे उसके बाद ही तय हो गया था कि मोघे का अब समिति से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोई वास्ता नहीं रहेगा। एक जमाने में संघ के प्रचारक रहे मोघे से ऐसी चूक कैसे हुई यह समझ से परे है।

मुरैना में जातिगत समीकरण की अहम भूमिका : जातिगत समीकरण चुनाव में कितनी अहम भूमिका निभाते हैं इसकी बानगी देखना है तो मुरैना चलते हैं। यहां की 4 सीटों मुरैना, जौरा, दिमनी और सुमावली। यहां के जातिगत समीकरणों को देखा जाए तो ब्राह्मण, ठाकुर और गुर्जर को एक एक सीट देना जरूरी है। यहां तक तो ठीक है पर बची हुई एक सीट से किसी ब्राह्मण को मैदान में लाया जाए या ठाकुर को मौका दिया जाए यह कांग्रेस के बड़े-बड़े दिग्गज भी समझ नहीं पा रहे हैं। उन्हें इस बात की चिंता भी है कि कहीं इससे गुर्जर नाराज ना हो जाएं। खैर, इस समीकरण ने इंदौर छोड़कर जौरा में मेहनत कर रहे पंकज उपाध्याय की उम्मीदवारी की संभावनाओं को जिंदा रखा है। वैसे सुमावली सीट पर पंकज के मामा और दिल्ली के पूर्व विधायक बलवीर दंडोतिया का दावा भी कमजोर नहीं है।

संघर्ष के बाद ही सफलता : आईएएस अफसर राधेश्याम जुलानिया के भाग्य में भी संघर्ष के बाद ही सफलता लिखी हुई है। मध्यप्रदेश के सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर सुधारने और ऑनलाइन एजुकेशन सिस्टम को मजबूत करने की जो पहल जुलानिया ने की थी वह पहले दौर में तो धराशायी होती दिख रही है। माध्यमिक शिक्षा मंडल की तेजी से आगे बढ़ रही गाड़ी पर स्कूल शिक्षा विभाग की प्रमुख सचिव रश्मि शमी ने फिलहाल तो ब्रेक लगा दिया है और इसी का नतीजा है कि दूरदर्शन पर बोर्ड जो कक्षाएं शुरू करवा रहा था वह अभी रोक दी गई हैं। मामला क्षेत्राधिकार पर अतिक्रमण के रूप में सामने लाया जा रहा है, लेकिन हकीकत कुछ और ही है। जुलानिया फिलहाल खामोश हैं लेकिन इस उम्मीद के साथ कि वहां भी सफल हो जाएंगे। जैसे वह पहले भी हुए हैं।

सबसे अलग है संजय चौधरी का अंदाज : जेल महकमे में काम की तेज रफ्तार ने सभी को चौंका रखा है। वैसे इस महकमे के मुखिया स्पेशल डीजी संजय चौधरी की यह शैली कोई नई नहीं है। वह जहां भी रहते हैं उनका अंदाज ऐसा ही रहता है। लेकिन इस बार तेजी कुछ ज्यादा ही है और इसे अगले साल की शुरुआत में होने वाली उनकी सेवानिवृत्ति से जोड़कर भी देखा जा रहा है। वैसे आईएएस और आईपीएस अफसर अपनी सेवानिवृत्ति का समय नजदीक आने पर कामकाज के मोह से मुक्त होते जाते हैं, लेकिन चौधरी का अंदाज इससे कुछ जुदा है। ऐसा ना हो कि नौकरी के अंतिम दौर की यह तेजी उनके लिए नुकसान का सबब बन जाए।

हाईकोर्ट जज के लिए 6 नाम : यदि सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो मध्यप्रदेश से जिन 6 वरिष्ठ अभिभाषकों के नाम हाईकोर्ट जज के लिए आगे बढ़ाए गए हैं, उन पर अंतिम फैसला अक्टूबर के अंत या नवंबर की शुरुआत में हो‌ जाएगा। इनमें इंदौर से पूर्व अतिरिक्त महाधिवक्ता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निष्ठावान मनोज द्विवेदी और पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल विवेक शरण के नाम शामिल हैं। इनके अलावा जबलपुर और ग्वालियर से भी 4 नाम हैं। इनमें सबसे चौंकाने वाला नाम शशांक शेखर का है जो कांग्रेस के दौर में महाधिवक्ता रहे। हाईकोर्ट की इंदौर बेंच के प्रिंसिपल रजिस्ट्रार अनिल वर्मा का नाम भी न्यायिक अधिकारियों के कोटे से हाईकोर्ट जज के लिए आगे बढ़ा है।

चलते चलते : इंदौर के आईजी भले ही विवेक शर्मा रहें या राकेश गुप्ता बनें लेकिन विनय सहस्त्रबुद्धे के खासमखास जय जैन का जलवा तो बरकरार रहना ही है। ज़रा पता करिए इसका कारण क्या है।

किस्मत के धनी पटेल : सत्य प्रकाश शर्मा के बाद परिवहन विभाग में यदि कोई किस्मत का धनी है तो वह हैं आरटीआई दशरथ पटेल। अगले साल सेवानिवृत्त होने जा रहे पटेल कुछ साल पहले भाजपा के एक बड़े केंद्रीय नेता के लिए परेशानी का कारण बन चुके हैं। पटेल की इस मजबूती के तार इस बार भोपाल से जुड़े हुए हैं।

पुछल्ला : संदीप भूरिया के सहायक परिवहन आयुक्त के पद से हटने के बाद अब कई पुलिस अफसरों की निगाहें इस पद पर हैं। देखते हैं शशिकांत शुक्ला या बिट्टू सहगल में से किसे यह पद मिलता है। यहां भी मामला मंत्री जी बनाम मामा जी जैसा ही दिख रहा है।

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