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हिन्दी कविता : पलकों का शामियाना

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निशा माथुर 
 
पलकों की दहलीज पर, नींद फुसफसा के यह कह रही,  
कैसे उगूं इन आंखों में, सुकून का एक पल भी नहीं।  
अब कैसे उतरूं, और गिरा दूं पलकों का शामियाना,   
यहां तो नागफनी के फूलों संग ही, है दामन थामना ।।  

क्यों बि‍खेर रखा है, अपने वजूद को तिनकों-तिनकों में,  
करवटें बदलते ही फांसें, चुभ जाएंगी कोमल मनकों में।  
क्यों मन राजहंस रूठा है, जीवन सरिता की नगरी में,  
क्यों टूटा है बांध स्पंदित, अब अश्रुकणों की गगरी से । 
अब कैसे उतरूं, और गिरा दूं पलकों का शामियाना,   
कल छोटा-सा एक सूरज, मुझे हथेली पर भी है उगाना। ।  
 
क्यें भटकते गिन रहे हो, बिस्तर पर चादर की सिलवटें, 
अनसोया, अनजागा मन हर पल-क्षण ले रहा करवटें । 
क्यों दिन भर के समीकण पर, खोलें पोथी और किताब,  
खुद से खुद की अभिलाषाओं का, क्यों कर रहे हिसाब।  
अब कैसे उतरूं, और गिरा दूं पलकों का शामियाना,  
कल अरूणिमा में अलसाए सपने, और सच से होगा सामना।। 

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