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व्यंग्य रचना- मुर्गा नहीं बनाना

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सीमा व्यास

बच्चों के अधिकार के नाम पर हर दूसरे रोज एकाध आदेश हेड ऑफिस से पहुंच ही जाता है। आज भी सुबह इस तरह के किसी आदेश को सरसरा देख प्रार्थना के करीब घंटाभर बाद धुर्वे ने कसमसाते हुए कक्षा सातवीं ब में जाने का मन बनाया। 
कक्षा में हाजिरी लेकर चॉक बोर्ड से लगाई ही थी कि ब्लॉक ऑफिस से चतुर्वेदी का फोन आ गया। हर गांव की तरह यहां भी सिग्नल कम मिलते हैं, सो वे मोबाइल कान से लगाए बरामदे की ओर निकल आए। 'हलो' के जवाब में चतुर्वेदी ने बस इतना ही कहा कि, 'साब आ रहे हैं, मुर्गा मत बनाना' और धुर्वे 'हलो...', 'हलो...' कहते ही रह गए और सिग्नल मिलना बंद।
 
धुर्वे के कपाल की चिंता की लकीरों को पास की आठवीं स में पढ़ा रहे चौबे ने तत्काल पढ़ लिया। डस्टर कांख में दबाए चश्मा आंखें पर ठीक करते हुए इशारे से पूछा, 'क्या खबर है?' धुर्वे ने मोबाइल के सिग्नल की डंडियों को ताकते हुए कहा, 'ब्लॉक ऑफिस से फोन था चतुर्वेदी का। कह रहा था, साब आ रहे हैं, मुर्गा नहीं बनाना है।'
 
'अरे तो फिर क्या बनाना है?' चौबे ने पूछा तो उनके कपाल पर भी चिंता की लकीरें नजर आने लगीं। तभी छठी स से राजकुमारी यादव साड़ी ठीक करते हुए आईं और समझदारी की गुगली फेंकते हुए बोली, 'अरे, साब शाकाहारी होंगे। तभी तो मुर्गा बनाने का मना किया है।' जैन मैडम ने कक्षा से बाहर झांककर ही कह दिया, 'मैं तो कहती हूं दाल-पानिए ही बढ़िया रहेंगे।' 
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'हूं हूं! दाल-पानिए! और हमारा क्या होगा? हमें भी तो पार्टी का मौका तभी मिलता है, जब साब आएं।' धुर्वे ने जैन मैडम की ओर बुरा-सा मुंह बनाते हुए कहा। चतुर्वेदी ने तसल्ली दी, 'अरे हो सकता है उन्हें मुर्गे से हीक बैठ गई हो। बैठ जाती है कुछ लोगों को। हम उसकी जगह तीतर- बटेर कुछ भी बना सकते हैं।'
 
धुर्वे की जान में जान आई। उसने फौरन सातवीं से केशव को बुलाया। कहा, 'जा बेटा। तुरंत घर दौड़ जा। तेरे पिताजी तो रोज तीतर-बटेर फंसाते हैं न फंदे में। जो मिले ले आना। एक-दो जितनी हो सब। और सुन, किसी कीमत पर खाली हाथ मत आना। समझा?'
 
बेचारा केशव एक हाथ से नेकर पकड़े व दूसरे से नाक में अंगुली फिराता मास्साब का 'आदेश' सुन गर्दन हिलाने के सिवा कुछ न कर सका। इधर केशव घर रवाना हुआ और उधर महिला वर्ग जग-गिलास साफ कराने में लग गया। स्कूल का इकलौता चपरासी रामदीन जोश में आ गया। हमेशा की तरह तेल-मसाले के इंतजाम में जुट गया। पुरुष वर्ग कुछ और की व्यवस्था में लग गया। और बच्चों की पौ बारह। छठी-सातवीं के बच्चे कांव-कांव करने लगे और उससे बड़ी कक्षा के गुटर-गूं में व्यस्त हो गए।
 
करीब घंटेभर बाद साब के स्वागत की तैयारियां अंतिम चरण में थीं और केशव का बेसब्री से इंतजार हो रहा था कि तभी दूर से केशव खाली हाथ लौटते नजर आया। उसे देख धुर्वे का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। केशव हाथ मलते हुए सफाई में कुछ कह पाता उससे पहले ही धुर्वे ने उसे भला-बुरा कहते हुए आदेश दिया, 'जरा-सा काम नहीं कर सका, नालायक कहीं का। जा, उधर कोने में जाकर मुर्गा बन जा।'
 
अबोध केशव ने आदेश-पालन में जरा भी देर नहीं की। इधर बरामदे की दीवार से सटकर वह मुर्गा बना ही था कि घर्र-घर्र करती साब की गाड़ी आकर रुकी। साब, चतुर्वेदी और एक पत्रकार। पत्रकार ने गाड़ी से उतरते ही दनादन केशव की फोटो लेना शुरू कर दी। साब स्वागत हेतु लाइन में खड़े स्टाफ पर गुर्राए, 'किसी ने आदेश पढ़ा नहीं था? बच्चों को मुर्गा मत बनाना।' सब चौंक गए। 
 
साब ने स्टाफ के निलंबन की कार्रवाई शुरू कर दी। चतुर्वेदी सिग्नलहीन मोबाइल को देख रहे धुर्वे को घूर रहे थे, धुर्वे चौबे को, चौबे चश्मा ठीक करती यादव मैडम को, यादव मैडम जैन मैडम को और जैन मैडम की निगाहें केशव से हट ही नहीं रही थीं। और केशव था कि चतुर्वेदी की योग्यता पर शक करे जा रहा था कि कहीं इसकी नियुक्ति कहीं कुछ ले-दे के तो नहीं हुई थी? 


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