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पूजा और मन

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सीमा व्यास

” तुम पूजा नहीं करती ?”
 
” अं.... नहीं। मेरा मन नहीं लगता है पूजा में। ”
 
” और उपवास ? कोई व्रत उपवास भी नहीं करती ?”
 
” जी.... मुझसे भूख बिलकुल भी सहन नहीं होती। तो उपवास.... ”
 
” अजीब हो, आस्तिक हो क्या ?”
” नहीं... नहीं.... आस्तिक नहीं। ईश्वर की शक्ति पर पूरा भरोसा है मुझे। मन ही मन उसे रोज याद भी करती हूं। पर ये पूजा.... ।”
 
” अरे, थोड़ा मन लगाकर देखो पूजा में। पूजा-पाठ से मन में शांति रहती है। सुख-समृद्धि आती है। ”
 
” हां, परिवार की सुख समृद्धि के लिए ही तो मैं इतने काम करती हूं। मन में कामों को पूरा करने के अलावा कोई विचार आते ही नहीं। ”
 
” अरे, कुछ देर भगवान के सामने बैठोगी तो पूजा में भी मन लगेगा। जाओ, आज की पूजा तुम करो। देखना जरूर मन लगेगा। ”
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मैं पूर्ण भक्ति भाव से भगवान के सिंहासन के सामने जाकर बैठ गई। कहां से पूजा शुरू करूं समझ नहीं आ रहा था। किसी काम को करने का तरीका न आता हो तो करने में आत्मविश्वास नहीं रहता। मैं पालथी लगाकर किंकर्तव्यमूढ़ सी बैठी थी तभी याद आया, दादी भगवानों की मूर्तियों पर चढ़े बासी फूल निकालने से पूजा शुरू करती थीं। उन्हें याद करते हुए मैं मूर्तियों पर चढ़े बासी फूल निकालने लगी। दिमाग में ऑफिस में प्रस्तुत किया जानेवाला अधूरा पीपीटी घूम रहा था। जिसकी चार-पांच स्लाइड बनाना बाकी थी। अंतिम प्रभावी स्लाइड्स को तैयार करते हुए मैंने मूर्तियों को तरभाने (मूर्तियों को नहलाने का तांबे का पात्र) में रखा और पास के लोटे से ताजा जल डालकर उन्हें नहला दिया। 
 
याद आया शाम को मेहमान आनेवाले हैं। वे दपंत्ति वृद्ध हैं और दादा शुगर के मरीज भी। सोच रही थी उनके लिए कुछ विशेष नाश्ता घर में ही बना दूं। ताकि उनका स्वाद भी बदल जाए और सेहत भी बनी रहे। समय की कमी के कारण खाने के साथ ही नाश्ता तैयार करने करने की प्रक्रिया दिमाग में तेजी से चल रही थी। 
 
मूर्तियों को सिंहासन में जमाने के बाद याद आया दादी हमेशा मुझसे चंदन घिसवाया करती थीं। चंदन घिसने में लगनेवाले समय को याद कर मैंने इरादा बदल दिया। पूजा पेटी से हल्दी निकाली। आचमनी से उसमें थोड़ा पानी डाला और फटाफट सब मूर्तियों को टीका लगा दिया। अभी ऑफिस जाने के कपड़े भी तैयार करने थे। बुधवार है, आज तो हरे रंग की साड़ी पहननी है। साड़ी तो प्रेस है पर ब्लाउज शायद उसे प्रेस करना पड़े।  सोचते हुए सब मूर्तियों पर फूल चढ़ाकर सजा दिया। 
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ताजे फूलों से सजी मूर्तियां सच में बहुत सुंदर लग रही थीं। मैं आत्ममुग्ध थी अपनी पूजा पर। आसन को यथास्थान रख एक क्षण गवांए बगैर मैं किचन की ओर भागी। 
 
कानों में आवाज सुनाई दी , ''ये भी कोई पूजा हुई? न दीपक न अगरबत्ती? आरती भी नहीं की? इससे तो न करती तो ही अच्छा था। ”

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