एक नींद निकाली और जले पैर की बिल्ली की तरह आदतन बावर्चीख़ाने का रुख़ किया. “अरी!! ये भूत की तरह यहां क्यूं मंडरा रही हो? रोज़ा है तुम्हारा!!!” बडी अम्मी ने डपटा तो ख़याल आया कि रोज़ा है। खिसियाती हुई बाहर आयी तो बाजी ने टोका, “अरे! मेहमान आ गए हैं! ज़रा मुंह धोकर कपडे बदल लो, नानीजान, मामूजान-मुमानी जान, चचा चची सब के सब लोग ही आते होंगे, जल्द कंघा लेकर आओ तो तुम्हारी चोटियां बना दूं”. मुझे बाजी का बाल खींच खींच कर चोटी बनाना सख़्त नापसंद था मगर उन्हें ना सुनने की आदत नहीं थी, अभी रोज़े में ही धुनककर रख देतीं सो मैंने चुपचाप चोटी करवाने को ही ग़नीमत जाना। इतने में अम्मा ने आकर बताया कि आज सब लोग मेरे लिये तोहफ़े और ढेर से कपड़े भी लाने वाले हैं। मैं थोडी सी ख़ुश हो गई। आज मुझे मेरी रोज़ की झाडू बुहारने वाली ड्युटी से भी छुट्टी मिल गई थी। नानी के घर से लाए गए कपडे पहन मैं फिर आंगन से कमरे, कमरे से छज्जे डोलने लगी। दिल में खयाल आया, रोज़ा है, कोई काम तो है नहीं, क्यूं न थोडी टीवी-शीवी ही देख ली जाए। प्लग लगाया ही था कि सीआईडी की तरह फिर बडी अम्मी नाज़िल, “अरी कम्बख़्त! रोज़े में टीवी नहीं देखते, रोज़ा मतलब नफ्स का रोज़ा। किसी क़िस्म का कोई एंनटरटैनमेंट नही।” उनकी घुडकियां दिल पर ली भी ना थी कि सब के सब चचा, फूफा अपनी जतन से जमा की गई बच्चों की फौज समेत हाज़िर। गुडिया-गुडिया का शोर मचाते कोई चूमचाट रहा था तो कोईं मारे ख़ुशी के गले लगा रहा था। मेरा पूरा ध्यान साथ लाए तोहफों के झोलो पर था।