Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

बिहार नतीजों का विदेश नीति पर असर

हमें फॉलो करें बिहार नतीजों का विदेश नीति पर असर
webdunia

अनवर जमाल अशरफ

, सोमवार, 9 नवंबर 2015 (16:56 IST)
लंदन के वेम्बली स्टेडियम में 60,000 लोगों को भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इंतजार है। वह दीवाली के बाद उनसे मिलने वाले हैं। लेकिन प्रधानमंत्री के तौर पर उनकी पहली ब्रिटेन यात्रा असहिष्णुता पर अंतरराष्ट्रीय चर्चा के साथ बिहार में मिली करारी हार के साए में होगी।
बिहार का चुनाव यूं तो भारत के एक राज्य का चुनाव था लेकिन भारत की मौजूदा सामाजिक और आर्थिक स्थिति ने उसे अंतरराष्ट्रीय आयाम दे दिया। महीने भर से दुनिया भर की मीडिया भारत में पुरस्कार वापसी और सांप्रदायिक माहौल की स्थिति पर रिपोर्टिंग कर रही थी और इन्हीं के बीच बिहार चुनावों ने वैश्विक सुर्खियों में जगह बना ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी बिहार के चुनावों पर पूरा ध्यान दिया और कई बार तो एक एक दिन में चार पांच रैलियां कर डालीं।
 
अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए मोदी की हार का सीधा संबंध भारत की आर्थिक स्थिति से है। ब्रिटेन के प्रमुख अखबार गार्डियन ने बिहार में बीजेपी की हार पर लिखा है कि यह मोदी के लिए, 'घरेलू स्तर पर बहुत बड़ा झटका है क्योंकि वह आर्थिक विकास के नाम पर पिछले साल जबरदस्त तरीके से लोकसभा चुनाव जीतने में कामयाब हुए थे। तब उन्होंने तेजी से विकास, आधुनिकीकरण और सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों को बचा कर रखने का वादा किया था।'
 
विकास के नाम पर भारत की सत्ता में आए प्रधानमंत्री बिहार के चुनाव में गड़बड़ा गए और यह धर्म और जाति के आस पास सिमट गया। भारत में निवेश करने वालों के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है। उन्हें जातिगत राजनीति से ज्यादा मतलब राष्ट्रीय विकास दर और सेंसेक्स के आंकड़ों से होता है। प्रधानमंत्री पद का चुनाव जीतने के बाद से नरेंद्र मोदी ने कई विदेशी दौरे किए हैं और उन्हें अपार सफलता भी मिली है। इन सफलताओं की बुनियाद विकास और निवेश है। उन्होंने अमेरिका की दो सफल यात्राओं में प्रवासी भारतीयों को आकर्षित किया और फेसबुक के मार्क जुकरबर्ग के साथ उनकी मुलाकात तो ऐतिहासिक बताई जाती है।
webdunia
हालांकि अमेरिकी अखबारों ने भी बिहार में बीजेपी की हार की खबर ली है। प्रमुख अखबार वॉशिंगटन पोस्ट ने 'अच्छे दिन' का हवाला देते हुए लिखा है, 'इस हार के बाद भारत की विपक्षी पार्टियां एकजुट होकर मोदी की आर्थिक नीतियों पर अंकुश लगाने की कोशिश करेंगी।' अखबार का इशारा है कि प्रधानमंत्री अच्छे दिन का वादा पूरा नहीं कर पाए हैं। वहीं अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक 'यह हार उन्हें संसद में कमजोर कर सकता है, जहां उनकी सरकार को टैक्स व्यवस्था, मजदूरी और भूमि कानून पर संघर्ष' करना है।
 
जर्मनी के प्रमुख अखबार फ्रैंकफुर्टर अलगेमाइने साइटुंग मोदी की हार को भारत की आर्थिक तरक्की की राह में रोड़े के तौर पर देख रहा है, 'इस जीत के साथ वह ऊपरी सदन (राज्यसभा) में बहुमत हासिल कर सकते थे, जो फिलहाल विपक्षी कब्जे में है। आर्थिक प्रगति के लिए इस सदन में सत्ताधारी पार्टी का बहुमत जरूरी है।' यह बात सच है कि महत्वाकांक्षी आर्थिक योजनाएं राज्यसभा में अटक सकती हैं, जो सरकार की विदेश नीति के लिए नुकसानदेह साबित होंगी। बिहार में हार के बाद मोदी सरकार को कार्यकाल के बचे हुए साढ़े तीन साल तक इस परेशानी का सामना करते रहना पड़ेगा।
webdunia
इस स्थिति के लिए खुद बीजेपी और बहुत हद तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिम्मेदार हैं। गुजरात के 2002 वाले दंगों के बाद से मोदी की छवि सांप्रदायिक मानी जाती रही है। उन्होंने 2014 वाले भारतीय लोकसभा चुनाव में इस छवि को साफ करने की पूरी कोशिश की और पूरा चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा। इसमें उन्हें अप्रत्याशित सफलता भी मिली।
 
लेकिन बिहार चुनाव के वक्त उनके भाषण और पार्टी की रणनीति बहक गई। वे सांप्रदायिक मुद्दों के विवाद में फंस गए। बुद्धिजीवियों की हत्या, पुरस्कार वापसी और सांप्रदायिक मुद्दों की बहस ने बीजेपी के लिए असहज माहौल बना दिया। मोदी की आलोचना इस बात पर हो रही है कि उन्होंने समाज के अंदर बढ़ रही बेचैनी को दूर करने के पर्याप्त उपाय नहीं किए और चुप्पी साधी रखी। फ्रैंकफुर्टर अलगेमाइने साइटुंग लिखता है, 'बिहार चुनाव के वक्त धार्मिक कार्ड सामने आ गया और बहस इन्हीं के आस पास होने लगी। मोदी की पार्टी को इससे फायदा नहीं पहुंचा।'
 
यह कहना जल्दबाजी होगा कि नरेंद्र मोदी ने विकास के नाम पर पिछले डेढ़ साल में जो कुछ पाया, उसे बिहार चुनाव में गंवा दिया। पर अंतरराष्ट्रीय नजरिए से बिहार चुनाव के नतीजे मोदी सरकार के लिए बड़ी परीक्षा साबित होगी, जिसमें पास करने के लिए एक बार फिर विकास के रास्ते पर लौटना होगा। इस साल भारत की आर्थिक प्रगति की दर पिछले कई सालों के मुकाबले ज्यादा आंकी जा रही है। विश्व बैंक की सालाना रिपोर्ट में बिजनेस करने वाले देशों में भारत की स्थिति चार पायदान उछली है और खुद भारतीय प्रधानमंत्री फोर्ब्स के दुनिया के सबसे शक्तिशाली लोगों की लिस्ट में नौवें स्थान पर पहुंच चुके हैं।
webdunia
मोदी और उनकी सरकार को ये सफलताएं विकास के नाम पर मिली है, सांप्रदायिक राजनीति के नाम पर नहीं। उनकी टीम को बिहार चुनाव के बाद आत्ममंथन की जरूरत है। सरकार को समझना होगा कि भारत के अंदर बेहतर स्थिति बनाने से ही विदेशों में बेहतर छवि बनाई सकती है। प्रधानमंत्री विकास और निवेश के प्रयासों को ब्रिटेन की तीन दिवसीय यात्रा के साथ दोबारा शुरू कर सकते हैं।
 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi