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जन्नत की हकीकत : अपने-अपने मेल्टिंग-पॉट

हमें फॉलो करें जन्नत की हकीकत : अपने-अपने मेल्टिंग-पॉट
- रमेश जोशी

दीवानेपन तक स्वतंत्रता के उपासक अमेरिका के विचारकों ने व्यक्ति की स्वतंत्रता को सर्वाधिक महत्व देते हुए जो कानून बनाए, उनका बाजार ने दुरुपयोग करते हुए मनमाना अर्थ स्थापित करते हुए स्वतंत्रतता को स्वच्‍छंदता में बदल दिया जिसके दुष्परिणाम वहां का समाज भोग रहा है।

विगत सदी के उत्तरार्ध में विभिन्न नस्लों, धर्मों वाले इस देश में मानवीय, राष्ट्रीय एकता और एक नए तथा आदर्श समाज के लिए 'मेल्टिंग-पॉट' की अवधारणा की गई कि मुक्त व्यापार के भगौने में एकसाथ उबलते-उबलते सब एक हो जाएंगे और एक नया और संपूर्ण मानव निर्मित होगा। उस संपूर्ण मानव का अब जो रूप देखने को मिल रहा है, वह अब दुनिया से अनजाना नहीं रहा है।
 
इसी तरह हम सब कहते हैं कि भारत महान आध्यात्मिक देश है, जो विभिन्न धर्मों, नस्लों को अपनी समावेशी संस्कृति द्वारा अपने में मिलाकर एक राष्ट्र का स्वरूप देने में सदा सक्षम है। जिसके लिए 2000 वर्षों के इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। लेकिन प‍िछले 40-50 वर्षों से यह अवधारणा क्या अब उसी रूप में दिखाई दे रही है?
 
मेल्टिंग-पॉट की रासायनिक प्रक्रिया से तैयार मानवों के देश में यह क्या हो रहा है? राष्ट्रपति कह रहे हैं- बच्चों पढ़ो, नहीं तो तुम्हारी नौकरी भारत और चीन के बच्चे ले भागेंगे। एक महिला एक भारतीय पुरुष को इसलिए चलती ट्रेन में से धक्का दे देती है कि वह उसे नौकरी छीनने वाला समझती है। एक सिख को इसलिए मार दिया गया कि उसके दाढ़ी थी। एक सिख को ओसामा कहकर अपमानित किया जाता है कि वह उन्हें मुसलमान-सा दिखा।

एक सिख बच्चें को स्कूल में आतंकवादी कहकर चिढ़ाया जाता है। कानून व्यवस्था के नाम पर काले युवक को मारा जाना बड़ा दुष्कर्म नहीं माना गया। महानगरों में अपराधी होने के शक में 80 प्रतिशत काले लोगों को ही रोका जाता है। जेलों में 80 प्रतिशत काले हैं। गरीबों में भी कालों का प्रतिशत ही अधिक है, मंदिरों और गुरुद्वारों पर हमले होते हैं। 'यहां से निकल जाओ' जैसे ‍वाक्य लिखे जाते हैं। यह सबसे सक्रिय और जीवंत अमेरिकी लोकतंत्र का यह कौन-सा रूप है?

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प्राचीनकाल के भारत में जैसी व्यावहारिकता और मानवीय स्वतं‍त्रता दिखाई देती है, सभी प्रकार के मानवीय संबंधों को सहज स्वीकृति देने वाले समाज का यह कौन सा रूप दिखाई दे रहा है‍ कि हम अचानक धर्म, जाति, नस्ल के नाम पर बंट गए हैं। हालांकि समाज में सहज भाव के अब भी मानवीय आधार पर एक-दूसरे के सुख-दु:ख में काम आने के अनेक उदाहरण मिलते रहते हैं। एक-दूसरे के धर्म, रीति-रिवाज, त्योहार-उत्सव में उत्साह से भाग लेने का संबंध कहां गया? अब तो हालत यह हो गई है कि प्रेम और भाईचारे के त्योहार होली पर शांति और कानून-व्यवस्था के लिए नगरों में विशेष पुलिस दलों की तैनाती की जाती है। समाज सुधार और उद्धार के नाम पर अन्य वर्गों को जूते मारने की आवश्यकता पड़ती है।

सरकार द्वारा भी रोगी का इलाज, भोजन, सहायता का विधान व्यक्ति की आवश्यकता और स्‍थिति के अनुसार नहीं, बल्कि जाति और धर्म के नाम पर किया जाए तो उसके क्या अर्थ लगाए जाएं, कानून में भी न्यायाधीश और अपराधी की जाति, पद, धर्म और धन का प्रभाव काम करे तो ऐसे समाज को क्या नाम दिया जाए भले ही देश और समाज के सेवक न तो खुले में बोलें और न ही यह कहीं संविधान में लिखा होता है। लेकिन इस वास्तविकता से सब परिचित हैं। यह एक 'ओपन सीक्रेट' है। दुनिया के अन्य देशों में भी इस विडंबना को कोई मंच पर स्वीकार नहीं करता। लेकिन दुनिया में जहां जनसंख्‍या बढ़ रही है वहां एक विशेष धर्म के अल्पसंख्यक कम होते जाएं या एक लिंग चिंतनीय रूप से कम होता जाए तो यह प्राकृतिक नहीं है।
 
इन विडंबनाओं के बीच एक बात पर विचार करें। अमेरिका में साउथ डकोटा में एक पहाड़ को काटकर अमेरिका के 4 महापुरुषों- अमेरिका की ‍विद्रोही सेना के प्रथम कमांडर-इन-चीफ तथा प्रथम राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंगटन, चौथे उपराष्ट्रपति थॉमस जेफरसन, 19वें राष्ट्रपति और गुलाम-प्रथा के उन्मूलक अब्राहम लिंकन और 39वें राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट की विशाल आवक्ष मूर्तियां उकेरी गई हैं। लेकिन वहां के लोग उन्हें उनकी राजनीतिक पार्टियों के अनुसार विभाजित करके नहीं देखते। ट्विन टॉवर की 9/11 की घटना किसी एक नेता या पार्टी से नहीं जोड़ी जाती और न ही उस क्षण में राष्ट्र विखंडित दिखाई देता। अमेरिका के विरुद्ध घोर अपराध करने वालों के प्रति जनता का रवैया जाति, धर्म और पार्टियों में बंटा नहीं दिखता। यह अमेरिका के लोकतंत्र की एकमात्र उपलब्धि और शक्ति मानी जा सकती है।
 
इस समय अपने वैश्विक-धार्मिक भाईचारे के लिए विख्यात इस्लाम की दुनिया में एक ही धर्म के फिरके एक-दूसरे के जानी दुश्मन बने बर्बरता की हदें पार करने की होड़ में लगे हुए हैं। पता नहीं, इन शाब्दिक अर्थों में उबलते हुए इस पॉट में से कौन सी अष्ट-धातु की प्रतिमा ढलकर निकलेगी? वैसे वहां किसी प्रतिमा की स्वीकृति नहीं है।
 
इसके विपरीत हम अपने को देखें। हम 70 वर्ष में इस दुविधा तक पहुंचे हैं कि गांधी और गोडसे में से राष्ट्रपिता कौन है। कंधे से कंधा मिलाकर 1857 का विद्रोह करने वाला और अंग्रेजों के विरुद्ध एकजुट होकर लड़ने वाला देश निर्णय नहीं कर पा रहा है कि जन-गण-मन गाए या नहीं, वन्दे मातरम्, सूर्य नमस्कार और सरस्वती वंदना कहीं उसका धर्म तो भ्रष्ट नहीं कर देंगे? तिरंगा झंडा और भारत से उसका क्या संबंध है? गाय हिन्दू है या मुसलमान? यह किसी देश के लिए अच्छे लक्षण नहीं हैं। और भारत जैसे बहुभाषी, बहुधर्मी, बहुरंगीय देश के लिए तो मौत और प्रलय के सूचक हैं। नेताओं को अपनी कुर्सी, सेठों को अपने मुनाफे और सामान्य लोगों को देश के विकास में अधिकाधिक हिस्सा (मुफ्त का माल, नौकरी और कामचोरी) चाहिए।
 
यह समय गहन चिंतन का है- विशेष रूप से सत्ताओं के लिए, क्योंकि अब भी यह है- यथा राजा, तथा प्रजा।

साभार- गर्भनाल


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