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प्रवासी साहित्य : डिजिटल समाज में सिकुड़ता इंसान...

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रेखा भाटिया

अपना लैपटॉप खोलती हूं फिर बंद कर देती हूं,
खोलकर फिर गलत पासवर्ड डाल देती हूं,
इनकरेक्ट मैसेज को पढ़ फिर ओके करती हूं,
करेक्ट पासवर्ड से खुले लैपटॉप को छोड़,
कुछ और ढूंढ़ती हूं !
पास पड़ा स्मार्ट फोन कुछ ज्यादा ही स्मार्ट है,
मेरे अँगूठे के निशान पर खुल जाता है,
अज़ीब बात है मैं अंगूठा छाप हूं क्या,
यह अहसास क्यों भीतर दौड़ाते हो,
समय बचाते हो!
समय पर तो है पाबन्दी,
वो अपनी गति और चाल एक-सी ही रखे,
पर इस मुए दिल की धड़कनों का क्या,
जो तुम्हें हाथ में लेते ही अपनी चाल भूल जाए,
हृदयगति अनियंत्रित होती !
इधर  दिमाग मस्तिष्क बाग़डोर कसकर खींचे,
कुछ देर व्हाट्सअप की ज्ञानगंगा में हो लिए तरबतर,
कुछ भरमाए पल गुजारे  फेसबुक प्यार में,
तुरंत दूसरों की मुस्कान से हिलोरे खाती ईर्ष्या,
बंद करो ईर्ष्या वाली विंडो !
अभी तो बहुत कुछ  है बाकि ,
मैसेज का टुनटुना बजा फलां-फलां का जन्मदिन ,
वो तारीख सही है या गलत कौन इतिहास खोजे,
डिजिटल वर्ल्ड में कौन परखे क्या सही क्या गलत,
सर्वज्ञाता गूगल सर्च इंजन है ही !
उसकी गतिवान समर्थता कितनी प्रत्यक्ष,  
जो स्क्रीन पर है, वो ही है आज जीवंत भी सही भी,
टच बटन से इंस्टेन्ट प्यारवाला दिल टेक्स्ट हुआ,
जन्मदिन पर दुआओं -प्रार्थनाओं का प्रसारण हुआ,
वेल इंस्टेन्ट बधाई सन्देश !
सतही अंश मन क्षण में भागे तन ह्रदय से बेकाबू हो,
यह ई-मेलों का कारवां कई नंबर आगे निकल गया,
खोजूं तो क्या विशिष्ट है आज के दिन में,
स्कूल, ऑफिस, मीटिंग्स, लंच आर्डर, एयर टिकट्स,
डॉक्टर अपॉइंटमेंट, रिपोर्ट्स,!
पार्टी, बैंक बैलेंस, बिल्स, मारो रेड फ्लैग,  
बहुत बिज़ी हैं और ढेर सारा स्ट्रेस,
न्यूज़ का आज क्या हाल है फिर बम गिरा,
औरतें, बच्चे, पर्यावरण, शिक्षा, हिलेरी -ट्रम्प,
वही रोना है !
साला इस धरती का मंगल पर कुछ मिला,
आंखें धुंधला-सी गई फ़ोन स्क्रीन छोटा है,
हाथ उछले फिर लैपटॉप पर बड़ा फ़ोन ढूढ़तीं हूं,
कहां है हां ये बढ़िया है ऑनलाइन आर्डर गया,
अटक गया कॉल !
कॉल करती हूं सभी सर्किट व्यस्त हैं,
हांजी ! सुबह मटमैली है सब धुंधला-सा है,
वाइड स्क्रीन,चमकीला-शोख, दुनिया हथेली पर,
धूम है, बवाल है नए फ़ोन का कैमरा कमाल है,
नजदीकी प्यारा-सा पाउट !
शरारती आंखों की डिजिटल नज़ाकत,
सेल्फी में झुर्रियां, डर्मोटोलॉजिस्ट डील है क्या,
प्लास्टिक का चेहरा और रसायन झुर्रियों में,
वाह -वाह विज्ञान का है जलवा,
आधा दिन गुजर गया !
थोड़ा इंसान जागा, घर बिखरा-बिखरा,
काम पर लगो, मन लगाओ म्यूजिक चलाओ,
एक पेन किलर बढ़िया दर्द की दवा,
फ्रोज़न लेफ्ट ओवर फ्रिज से नदारत,
मुसीबत है खाना पकाना है ! 
कौन है आज के ज़माने में हैवी पचाता,
दाल-बाटी, रोटी, सब्जी, मिठाई ओफ्फो !
सूप, सलाद, व्होलग्रेन पास्ता सब है यूट्यूब पर,
वीडियो देख खाना बना रहीं हूं मम्मी,
क्या आवाज नहीं सुनी !
क्यों बात नहीं हुई बहुत दिनों से क्या बोलूं ,
मिस किया हां वो चालीसवां माइलस्टोन बर्थडे,
क्या करूं बहुत ही बिज़ी हूं फेसटाइम क्यों,
वीकेंड में स्काई पर बात बहुत देर ठीक है।  

 

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