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जर्मनी में हिंदी की लोकप्रियता बरकरार

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कभी भारतीय ग्रंथों की गहराई नापने का जरिया रही संस्कृत की कवियों और विचारकों के देश कहे जाने वाले जर्मनी में लोकप्रियता कम हुई है, वहीं हिंदी को लेकर यहाँ दिलचस्पी बरकरार है। जर्मन हिंदी को अब भी एशियाई आबादी के एक बड़े तबके से संपर्क साधने का सबसे बेहतर माध्यम मानते हैं।

बर्लिन स्थित भारतीय दूतावास के प्रथम सचिव (सूचना और परियोजना) आशुतोष अग्रवाल ने बताया कि जर्मनी के हाइडेलबर्ग, लोवर सेक्सोनी के लाइपजिग, बर्लिन के हम्बोलडिट और बॉन विश्वविद्यालय में कई दशक से हिंदी और संस्कृत पढ़ाई जा रही है लेकिन संस्कृत पढ़ने वालों की तादाद में हाल ही के कुछ वर्षों में कमी देखी गई है।

उन्होंने कहा कि भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आईसीसीआर) के सहयोग से यहाँ हिंदी और संस्कृत पढ़ाई जाती है और शिक्षक भी परिषद के सहयोग से ही नियुक्त किए जाते हैं। फिलहाल, ऐसे चार शिक्षक विभिन्न विश्वविद्यालयों में नियुक्त हैं।

अग्रवाल ने कहा कि लेकिन हाल ही के वर्षों में संस्कृत पढ़ने वालों की संख्या कम हुई है। पहले एशियाई भाषा अध्ययन विभाग वाले विश्वविद्यालयों में एक सत्र में संस्कृत पढ़ने वालों की संख्या 100 से अधिक हुआ करती थी, लेकिन पिछले लगातार दो सत्र से ऐसे विद्यार्थियों की संख्या कुल मिलाकर 40 से ज्यादा नहीं है।

बहरहाल, अग्रवाल ने कहा कि संस्कृत पढ़ने वालों की संख्या भले ही 40 हो या हिंदी पढ़ने वालों की तादाद 100 के आसपास हो लेकिन इस कम आबादी वाले देश में यह संख्या मायने रखती है। खास बात यह है कि ये सभी विद्यार्थी जर्मन ही होते हैं। बॉन विश्वविद्यालय में हिंदी भाषा के प्राध्यापक हेंज वर्नर वेसलर बताते हैं, ‘जर्मनी में संस्कृत और हिंदी पढ़ने की पुरानी परंपरा रही है।
असल में यहाँ संस्कृत के प्रति दिलचस्पी तब शुरू हुई जब वर्ष 1800 में विलियम जोस ने कालीदास की ‘अभिज्ञानम शांकुतलम’ का जर्मनी में अनुवाद किया।’ उन्होंने कहा कि तभी से संस्कृत को भारतीय ज्ञानग्रंथों की गहराइयों में झाँकने का जरिया माना जाने लगा। 19वीं शताब्दी में एक दौर ऐसा भी आया जब पूरे यूरोप में संस्कृत को लेकर दिलचस्पी अचानक बढ़ गई। लेकिन अब हालिया वर्षों में इसमें कमी आई है।

वेसलर के मुताबिक, संस्कृत के प्रति दिलचस्पी इसलिए भी पैदा हुई थी क्योंकि जर्मन लोग लातिन भाषा सीखने को लेकर उत्सुक रहते थे और लातिन तथा संस्कृत में काफी समानताएँ पाते थे।

उन्होंने कहा कि लेकिन अफसोस की बात है कि अब कुछ विभागों में संस्कृत भाषा के अध्ययन को बंद करना पड़ा है। लेकिन हिंदी को लेकर दिलचस्पी बरकरार है। (भाषा)

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