लोक कहावत के मुताबिक जन्म से छठे दिन विधाता किस्मत का लेखा लिखते हैं, जिसका प्रतीक है छबड़ी। सातवें दिन सात्या (स्वास्तिक) या आसमान के सितारों में सप्तऋषि, आठवे दिन 'अठफूल', नवें दिन 'वृद्धातिथि' होने से डोकरा-डोकरी और दसवें वंदनवार बाँधते हैं। ग्यारहवें दिन केले का पेड़ तो बारहवें दिन मोर-मोरनी या जलेबी की जोड़ मँडती है। तेरहवें दिन शुरू होता है किलाकोट, जिसमें 12 दिन बनाई गई आकृतियों से साथ नई आकृतियों का भी समावेश होता है।
गुलपती, गेंदा, गुलबास के फूलों से सजती है 'संजा'। संजाबाई के किलाकोट में कौआ बेहद जरूरी है, जिसे सुबह सूरज उगने के पहले संजा से हटा दिया जाता है। इसके पीछे की मान्यता है कि कौआ रात में न हटाने से वह संजा से विवाह के लिए ललक उठता है। पूजन पश्चात कच्चे दूध, कंकू तथा कसार छाँटा जाता है। प्रसादी के बतौर ककड़ी-खोपरा बँटता है और शुरू होते हैं संजा गीत-
'संजा मांग ऽ हरो हरो गोबर
संजा मांग ऽ हरो हरो गोबर
कासे लाऊ बहण हरो हरो गोबर
संजा सहेलडी बजार में हाले
वा राजाजी की बेटी।'
या- संजा के दरबार में चंपो फुलीरियो म्हारीमाय कुण बाई तोड़े फूल और श्राद्ध पक्ष की समाप्ति के साथ ढोल-ताशों के बीच 'सारे समेट' कर नई नवेली 'बन्नी' ओढ़कर बिदा होती है संजा-
'म्हारी संजा फूली वई गई, वई गई
बासी टुकड़ा खाई गई, खाई गई।'