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गणगौर : रना देवी की आराधना का पर्व

आनुष्ठानिक पर्व है 'गणगौर'

हमें फॉलो करें गणगौर : रना देवी की आराधना का पर्व
- डॉ. सुमन चौरे

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'गणगौर' एक आनुष्ठानिक पर्व है। चैत्र मास, कृष्ण पक्ष की दसवीं से चैत्र शुक्ल पक्ष तृतीया तक चलने वाला यह नव दिवसीय पर्व रना देवी की आराधना का पर्व है। जिस प्रकार शास्त्रोक्त रीति से मंत्रोच्चार कर, देवी-देवताओं का आह्वान किया जाता है उसी प्रकार निमाड़ (मध्यप्रदेश) में लोकशास्त्रोक्त विधि से, बाँस की छोटी-छोटी टोकरियों में गेहूँ बोकर गीतों के द्वारा रना देवी का आह्वान किया जाता है।

यह रना देवी 'गौरी' का ही एक रूप है। आह्वान से विसर्जन तक, संपूर्ण क्रियाएँ गीत गाकर संपन्न कराई जाती हैं। गीत ही मंत्रों का कार्य करते हैं। गीतों की कड़ियों में रनुबाई-धणियर राजा, गऊरबाई-इसर राजा, लक्ष्मीबाई-विष्णु राजा, सइतबाई-ब्रह्मा राजा, रोहेणबाई-चंद्रमा राजा इन पाँचों बहन (देवियाँ) और उनके पति देवताओं का नाम लिया जाता है।

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नित्य पूजा क्रम में जवारा सिंचन, श्रृंगार, अर्घ, आरती, नैवेद्य, रमण और शयन के गीत होते हैं। नौ दिन तक संपूर्ण निमाड़ गीतों से सराबोर रहता है। निमाड़ के देवी-देवता न चमत्कारी हैं न विस्मयकारी। इनकी जीवनशैली भी साधारण किसान की जीवनशैली जैसी ही होती है। खेती-बाड़ी, काम-धंधा, खाना-पहनना सब कुछ आम लोगों जैसा। जवारा सींचने के समय जो गीत गाए जाते हैं, उसमें ग्राम्य जीवन व नारी मन की सुलभ कोमल भावनाओं का वर्णन मिलता है :-

धणियर आँगणऽ कुआँ खणाया;
हरिया एतरो पाणीजी।

जूड़ो छोड़ी न्हावण बठी,
धणियर घर की राणी जी॥

आमुलड़ा री डाळऽ रनुबाई,
सालुड़ा सुखाड़ऽ जी॥

बोलऽ अमरित वाणी रनुबाई,
ठुमक्या, दई-दई नाचऽ जी।

भावार्थ-धणियरजी के आँगन में कुआँ खुदा है। दसों फुट पानी भरा है। रनुबाई जूड़ा खोलकर सखियों के साथ स्नान करती हैं और आम्रवृक्ष पर साड़ी सुखाती हैं। प्रातः का समय बड़ा सुहावना है, जब तक साड़ी सूखेगी, रनुबाई के पैर सखियों के साथ थिरक (ठुमक) उठते हैं। मन पुलकित हो तो सजने-सँवरने की ललक बढ़ जाती है।

श्रृंगार गीतों में 'टीकी', 'घाघरा', 'चुँदड़ी', चुड़िलो गीत गाए जाते हैं। 'टीकी' ललाट की शोभा, सौभाग्य का प्रतीक और प्रियतम से प्रेम जताने का अंदाज भी है। रनुबाई कभी तो धणियरजी से जड़ाव की टीकी गढ़वाने को कहती हैं, कभी आकाश में चमकने वाले तेजस्वी 'शुक्र के तारे' की टीकी गढ़वाने की बात कहती हैं, कभी दूज के चाँद की टीकी गढ़वाने का कहकर प्रियतम के अंक में छिप जाने की बात कहती हैं।

'टीकी' गीतों में पति-पत्नी के बीच चलने वाला हास्य-विनोद, मान-मनुहार सब कुछ आम गृहस्थ के जैसा ही है। रनुुबाई कहती हैं कि 'गढ़लंका से सोना खरीद कर, उसकी टीकी गढ़वा दो।' धणियर कहते हैं-'हे प्रिया टीकी तो गोरे मुख पर शोभा पाती है, तुम तो साँवली हो', इतना सुनकर रनुबाई रूठ जाती है और उत्तर देती हैं-

धणियर, हम साँवळा, साँवळा बापऽ माँयऽ
धणियर हमरी कोठड़ी मतऽ आवजोऽ।

नई तो होसे तुमरी कूकऽ भी साँवळी
टीकी का रनुबाई सादुला।

अर्थात्‌ -'हे धणियर राजा हम साँवले हैं, हमारे माँ-बाप भी साँवले हैं। पर आप हमारे रंगमहल में मत आना। हमारी तो कोख भी साँवली है। फिर तुम्हारी संतान साँवली हो जाएगी।' धणियर राजा मान-मनुहार करते हैं। रनुबाई के ललाट पर टीकी लगाते हैं। श्रृंगार के बाद अर्घ के गीत गाए जाते हैं। गौर पूजने वाली भक्त महिलाएँ रनुबाई से सुख, सौभाग्य, समृद्धि और संतान का आशीर्वाद चाहती हैं।

पूजणऽ वाळई काई माँगऽ
गायऽ, गोठाणऽ, घोड़िला माँगऽ

भुजा भरंता चूड़िया माँगऽ
धणि को राजऽ माँगऽ, बेटा की कमाई माँगऽ

ववू को रांध्यो माँगऽ,
दीय को परोस्यो माँगऽ।

मतलब- पूजने वाली क्या माँगती है? वह गाय, भैंस, घोड़ियों से भरी गोठान माँगती है। भुजा भर चूड़े माँगती है। पति का राज्य, बेटे की कमाई, बहू के हाथ की रसोई व बेटी के हाथ की थाल परोसी माँगती है। भक्तिनों ने गीत की इन दो पंक्तियों में संपन्न सुखी गृहस्थी का वरदान, देवी से पा लिया!

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रना देवी संतानदेवी के रूप में भी पूजी जाती हैं। संतान प्राप्ति की कामना से गाए जाने वाले गीत 'वाँजुली' गीत कहे जाते हैं। इन गीतों को सुनकर स्वयं करुणा भी करुणा से भर उठती है। इस प्रकार मान-मनौती, कामना, प्रार्थना करते आठ दिन व्यतीत हो जाते हैं। रनु देवी के ससुराल लौटने का समय आता है। इस अवसर पर रनुबाई का सखियों के साथ, रमण-भ्रमण, नृत्यगीत, फूल पाती के गीत गाए जाते हैं, जिनमें देवी के सौंदर्य की प्रकृति से अद्भुत उपमाएँ दी जाती हैं-

थारो काई-काई रूपऽ वखाणू रनुबाई

ौवें दिन लोकाचार पूर्ण कर देवी को विदाई दी जाती है। पीली साड़ी, 'गोदी भर मेवा', 'कपाल भर सिन्दूर' के गीत गाए जाते हैं।

रनुबाई की विदाई के समय बेटी की विदा जैसे भावुक माहौल हो जाता है-जब देवी स्वरूप जवारे की कुरकई को गले मिलकर विदा दी जाती है। जलाशय में विसर्जन के पश्चात लोग भारी मन से घर लौटते हैं, तो ज्ञान वैराग्य का गीत गाते हैं-

दोयऽ मयला राऽ बीचऽ
पोपटड़ोऽ रे पंछी मोतीऽ चुगऽ

मति कोई दीजो उड़ायऽ,
आपऽ आपऽ रे पंछी उड़ी जासे।

रनुबाई अति स्वरूप।
हिवड़ो लगई रे धणियर लई जासे।

भावार्थ-दो महलों के बीच पंछी मोती चुग रहा है। कोई उसे मत उड़ाना। वह स्वयं उड़ जाएगा। रनुबाई अति सुंदर हैं। धणियर राजा उन्हें हृदय में समाकर ले जाएँगे। नौवें दिन देवी से क्षमा, पुनः-पुनः आने की प्रार्थना के साथ निमाड़ का यह लोक पर्व संपन्न होता है।

गणगौर का यह लोक पर्व यथार्थ में महालोक पर्व है। इसमें समूचा निमाड़ नौ दिन तक जाति-पाँति, ऊँच-नीच, गरीबी-अमीरी का भेद भूलकर, हर्षोल्लास, सद्भावना एवं सौहार्द के पवित्र वातावरण में डूबा रहता है।

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