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बसंत पंचमी पर सरस्वती का अवतीर्ण

विद्यादायिनी सरस्वती स्वरों में विराजित

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- ओमप्रकाश कादया

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संपूर्ण संस्कृति की देवी के रूप में दूध के समान श्वेत रंग वाली सरस्वती के रूप को अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण में वाग्देवी को चार भुजायुक्त व आभूषणों से सुसज्जित दर्शाया गया है। स्कंद पुराण में सरस्वती जटाजुटयुक्त, अर्धचन्द्र मस्तक पर धारण किए, कमलासन पर सुशोभित, नील ग्रीवा वाली एवं तीन नेत्रों वाली कही गई हैं। रूप मंडन में वाग्देवी का शांत, सौभ्य व शास्त्रोक्त वर्णन मिलता है।

बसंत पंचमी के पर्व को मनाने का एक कारण बसंत पंचमी के दिन सरस्वती जयंती का होना भी बताया जाता है। कहते हैं कि देवी सरस्वती बसंत पंचमी के दिन ब्रह्मा के मानस से अवतीर्ण हुई थीं। बसंत के फूल, चंद्रमा व हिम तुषार जैसा उनका रंग था।

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बसंत पंचमी के दिन जगह-जगह माँ शारदा की पूजा-अर्चना की जाती है। माँ सरस्वती की कृपा से प्राप्त ज्ञान व कला के समावेश से मनुष्य जीवन में सुख व सौभाग्य प्राप्त होता है। माघ शुक्ल पंचमी को सबसे पहले श्रीकृष्ण ने देवी सरस्वती का पूजन किया था, तब से सरस्वती पूजन का प्रचलन बसंत पंचमी के दिन से मनाने की परंपरा चली आ रही है।

सरस्वती ने अपने चातुर्य से देवों को राक्षसराज कुंभकर्ण से कैसे बचाया, इसकी एक मनोरम कथा वाल्मिकी रामायण के उत्तरकांड में आती है। कहते हैं देवी वर प्राप्त करने के लिए कुंभकर्ण ने दस हजार वर्षों तक गोवर्ण में घोर तपस्या की। जब ब्रह्मा वर देने को तैयार हुए तो देवों ने कहा कि यह राक्षस पहले से ही है, वर पाने के बाद तो और भी उन्मत्त हो जाएगा तब ब्रह्मा ने सरस्वती का स्मरण किया।

सरस्वती राक्षस की जीभ पर सवार हुईं। सरस्वती के प्रभाव से कुंभकर्ण ने ब्रह्मा से कहा- 'स्वप्न वर्षाव्यनेकानि। देव देव ममाप्सिनम।' यानी मैं कई वर्षों तक सोता रहूँ, यही मेरी इच्छा है। इस तरह देवों को बचाने के लिए सरस्वती और भी पूज्य हो गईं। मध्यप्रदेश के मैहर में आल्हा का बनवाया हुआ सरस्वती का प्राचीन मंदिर है। वहाँ के लोगों का विश्वास है कि आल्हा आज भी बसंत पंचमी के दिन यहाँ माँ की पूजा-अर्चना के लिए आते हैं।

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